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कविक स्वप्न - मैथिलि कविता | Maithili Poems By Nagaarjun


कविक स्वप्न

Maithili Poems By Nagaarjun

मैथिलि कविता


 जननि हे! सूतल छलहुँ हम रातिमे
नीन छल आयल कतेक प्रयाससँ।
स्वप्न देखल जे अहाँ उतरैत छी,
एकसरि नहुँ-नहुँ विमल आकाशसँ।

फेर देखल-जे कने चिन्तित जकाँ
कविक एहि कुटीरमे बैसलि रही।
वस्त्र छल तीतल, चभच्चामे मने
कमल तोड़ै लै अहाँ पैसलि रही।

कविक स्वप्न  - मैथिलि कविता | Maithili Poems By Nagaarjun



श्वेत कमलक हरित कान्ति मृणालसँ
बान्हि देलहुँ हमर दूनू हाथकेँ।
हम संशकित आँखि धरि मुनने छलहुँ,
स्नेहसँ सूँघल अहाँ ता’ माथकेँ।

फेर देखल कोनमे छी ठाढ़ि मा,
किछु कहय ओ किछु सुनय चाहैत छी।
भय रहल अछि एहन कोनो वेदना
जाहिसँ शिरकेँ धुनय चाहैत छी।

बाजि उठलहुँ अहाँ हे कल्याणमयि!
उठह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।
राति-दिन जकरा तकैत रहैत छह
आँखि मुनि, लय कल्पनाक सहायता।

विद्ध क्रौंचक वेदनासँ खिन्न भय
बाल्मीकिक कण्ठसँ फूटलि रही।
आइओ हम पड़लि कमला कातमे
छी उपेक्षित, पूल जनु टूटलि रही।

तोर तन दौड़ैत छहु कोठाक दिस,
पैघ पैघ धनीक दिस, दरबार दिस।
गरीबक दिस ककर जाइत छै नजरि,
के तकै अछि हमर नोरक धार दिस।

कविक स्वप्न  - मैथिलि कविता | Maithili Poems By Nagaarjun


कय रहल छह अपन प्रतिभा खर्च तोँ
ताहि व्यक्तिक सुखद स्वागत गानमे।
जकर रैयति ठोहि पाड़ि कनैत छै
घर, आङन, खेत ओ खरिहान मे।

श्वेत कमलक हरित कान्ति मृणालसँ
बान्हि देलियहु तोहर दूनू हाथकेँ।
ओम्हर देखह हथकड़ी सँ बद्ध-कर
देशमाता छथि झुकौने माथकेँ।

हाय! ई राका निशा, तोँ मस्त भय
करइ छह अभिसार नीलाकाशमे।
कल्पनाक बनाय पाँखि उड़ैत छह
मन्द मलयानिलक मृदुच्छवासमे।

तोँ जकर लगबैत छह सदिखन पता,
सुनह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।
जिन्दगी भरि जे अमृत-मन्थन करय,
जिन्दगी भरि जे सुधा संचित करय,

ओ पियासेँ मरि रहल अछि, ओकरे
अमृत पीबासँ जगत वंचित करय,
परम मेधावी कते बालक जतय
मूर्ख रहि, हा! गाय टा चरबैत छथि।

कविक स्वप्न  - मैथिलि कविता




कते वाचस्पति, कते उदयन जतय
हाय! वन-गोइठा बिछैत फिरैत छथि।
तानसेन कतेक रविवर्मा कते,
घास छीलथि वाग्मतीक कछेड़मे।

कालिदास कतेक, विद्यापति कते
छथि हेड़ायल महिसवारक हेँड़मे।
अन न छैं, कैंचा न छैं, कौड़ी न छै’
गरीबक नेना कोना पढ़तैक रे!

उठह कवि! तोँ दहक ललकारा कने,
गिरि-शिखरपर पथिक-दल चढ़तैक रे!
हमर वीणा-ध्वनि कने पहुँचैत जँ
सटल पाँजर बोनिहारक कानमे।

सफल होइत ई हमर स्वर-साधना
चिर-उपेक्षित जनक गौरव-गानमे।
नावपर चढ़ि वाग्मतीक प्रवाहमे
साँझखन झिझरी खेलाइ छलाह तोँ।

कविक स्वप्न  - मैथिलि कविता

वास्तविकता की थिकै’ से बुझितहक
बनल रहितह जँ कनेक मलाह तोँ।
आइ गूड़ा, काल्हि खुद्दी एहिना,
तोहर बहिकिरनी कोना निमहैत छहु?

साँझ दैं छहु हाय! ओ पतलो जरा,
गारि, फज्झति मोन मारि सुनैत छहु।
ओकर नोरक लम्बमान टघारमे
गालपरसँ कवि! हमहु बहि जाइ छी।

कल्पनामय प्रकृति तोहर देखिकेँ,
की करू हम ऐंचि कय रहि जाइ छी।
छह तोरा जकरा सङे एकात्मता,
सुनह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता। 
कविक स्वप्न  -"यात्री" मैथिलि कविता
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यात्री

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