सपने अगर सच हो जाते, मंज़र क्या होता !
अगर आ जाती बहारें कहीं, तो बंजर कहाँ होता ?
न जाने कितने नयनो ने ख्वाब छीनते देखे हैं,
सवाल बनते देखे हैं, जवाब छीनते देखे हैं ||
जो सपना देखा था हमने, काश उसी में रहते हम,
इस दुनिया की न सुनते एक, इस दुनिया से न कहते हम |
आँखे मूंदे-मूंदे, मदिरा पीते रहते हम,
नींद- नशे में बहते-बहते सीट रहते हम ||
पर पलकों पर नहीं दिखतें सपने, नींद दिखा करती है,
हम पर मारे छींटे दुनिया "उठ जाओ प्यारे" कहती है |
हम को खींच लाती है काले- सफ़ेद रंगों में,
बांध देती है हमें दायरों में ,ढंगों में ||
फिर रात हम स्वप्न- नगरी में चले जाते हैं,
हकीकत में फिरते रहते हैं |
सपनो में साँसे पाते हैं,
पर रोज़ सुबह ये दुनिया, हमारे ख्वाबों को झुठलाती है |
पंखोंवाली चिड़िया पिंजरों में बाँधी जाती है |
एक दफा हम छोड़ आये दुनिया ,
और सपनो का एक झोला सी डाला ||
स्वयं उठकर फिर अगली सुबह,
उन सपनो में, रंग सच्चाई का भर डाला |
जब लौटे बेरंग दुनिया में, तो वो रंग हवा में उछाल दिए,
न टूटे कभी ख्वाब किसी के, उस दिन सब ने ख्वाब सीए ||
सब ने मिलकर उस दिन का शहर सजाया,
गहरी- गहरी रातों में जिसने जो देखा सो पाया |
क्योंकि अब हकीकत के दायरों में, ख्वाब नहीं बांधे जाते हैं,
अब नहीं गिराते ख्वाब ज़मीन पर,
डोर थामे हम उनके संग उड़ जाते हैं ||
-
शाम्भवी पाल