फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी
Faiz Ahmad Faiz Shayari
और क्या देखने को बाक़ी है,
आप से दिल लगा के देख लिया |
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के,
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के |
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा |
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है |
उतरे थे कभी 'फ़ैज़' वो आईना-ए-दिल में,
आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का |
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब,
आज तुम याद बे-हिसाब आए |
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं,
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं |
आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान,
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे |
आप से दिल लगा के देख लिया |
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के,
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के |
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा |
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है |
उतरे थे कभी 'फ़ैज़' वो आईना-ए-दिल में,
आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का |
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब,
आज तुम याद बे-हिसाब आए |
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं,
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं |
आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान,
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे |
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में,
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं |
इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक,
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे |
न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ,
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं |
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं,
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले |
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे,
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे |
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया,
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के |
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम,
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं |
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन,
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के |
तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले,
अपने कुछ और भी सहारे थे |
न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है,
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है |
दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के,
वो जा रहा है कोई शब-ए-गम गुज़ार के |
वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था,
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है |
इक गुल के मुरझाने पर क्या गुलशन में कोहराम मचा,
इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए |
अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें,
दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें |
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए,
इस के बाद आए जो अज़ाब आए |
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही,
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही |
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले |
जानता है कि वो न आएँगे,
फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल |