Hindi Poem For Nature | Poem In Hindi Nature | Nature Par Kavita
जन्म-भूमि
मेरी जन्म-भूमि,
मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
नीलम का आसमान है, सोने की धरा है,
चाँदी की हैं नदियाँ, पवन भी गीत भरा है,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
ऊँचा है, सबसे ऊँचा जिसका भाल हिमाला,
पहले-पहल उतरा जहाँ अंबर से उजाला,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
हर तरफ़ नवीन मौज, हर लहर नवीन,
चरण चूमते हैं रूप मुग्ध सिन्धु तीन,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
इज़्ज़त प तेरी माता,
यह जान भी निसार !
सौ बार भी मरेंगे हम,
जन्में जहाँ इकबार !
-
शैलेन्द्र
Hindi Poem For Nature
Hindi Poem On Nature
Poem In Hindi Nature
Poem In Hindi Of Nature
मेघ आए
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के संवर के।
पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आंधी चली, धूल भागी घाघरा उठाये,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूंघट सरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,
‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’ –
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँ वर के।
क्षितिज अटारी गहराई दामिनी दमकी,
‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’,
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
यह कदंब का पेड़ अगर माँ , होता यमुना तीरे ,
में भी उसपर बैठ कन्हैया बनता धीरे – धीरे।
ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली ,
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।
तुम्हे नहीं कुछ कहता पर में चुपके – चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से में बांसुरी बजाता
अम्मा – अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ , तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।
तुम आँचल फैला का अम्मा वहीं पेड़ के निचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखे मींचे।
तुम्हे ध्यान में लगी देख में धीरे – धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के निचे छिप जाता।
तुम घबरा कर आँख खोलती , पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पाती।
इस तरह कुछ खेला करते हम तुम धीरे – धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। ।
-
सुभद्रा कुमारी चौहान
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बसंती हवा
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
सुनो बात मेरी-
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ,हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
-
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काली घटा छाई है
काली घटा छाई है
काली घटा छाई है
लेकर साथ अपने यह
ढेर सारी खुशियां लायी है
ठंडी ठंडी सी हव यह
बहती कहती चली आ रही है
काली घटा छाई है
कोई आज बरसों बाद खुश हुआ
तो कोई आज खुसी से पकवान बना रहा
बच्चों की टोली यह
कभी छत तो कभी गलियों में
किलकारियां सीटी लगा रहे
काली घटा छाई है
जो गिरी धरती पर पहली बूँद
देख इसको किसान मुस्कराया
संग जग भी झूम रहा
जब चली हवाएँ और तेज
आंधी का यह रूप ले रही
लगता ऐसा कोई क्रांति अब सुरु हो रही
छुपा जो झूट अमीरों का
कहीं गली में गढ़ा तो कहीं
बड़ी बड़ी इमारत यूँ ड़ह रही
अंकुर जो भूमि में सोये हुए थे
महसूस इस वातावरण को
वो भी अब फूटने लगे
देख बगीचे का माली यह
खुसी से झूम रहा
और कहता काली घटा छाई है
साथ अपने यह ढेर सारी खुशियां लायी है |
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आ गया वसंत...
है आ गया वसंत देखो,
कैसी बहार छायी है,
कैसे घूम रहे हैं भवरे,
फूलों पे खुशबू आयी है ।
कैसे प्रकृति में रंग भरा है,
कैसे पेड़ों पर हरियाली है,
कैसे बिखरा है चमक यहां पर,
कितनी सुंदर सूरज की लाली है ।
कैसे बच्चे खेल कूद में,
कैसे तितलियाँ मंडराती हैं,
कैसे सभी खुश दिख रहे,
कैसे हवा ये आती है।
सच है वसंत की अनुपम छटा,
एक जादू सी बिखेरे है,
मैं भी हिस्सा इस आनंद का,
ये सारे अनुभव मेरे हैं।