Kisi Ke Kahe Par Chalna Mujhe Manzoor Nahin - Harishankar Parsai Ji Ki Hindi Kavita
हरिशंकर परसाई की हिंदी कविता
किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको
हरिशंकर परसाई
Kisi Ke Kahe Par Chalna - Harishankar Parsai Ji Ki Hindi Kavita
Mujhe shoolon se ishq hai, phoolon par kaise chaloon?
Jab pralay ki lau hoon main, to deep bankar kaise jaloon?
हरिशंकर परसाई की हिंदी कविता का भावार्थ
यह कविता आत्मबोध, विद्रोह और स्वतंत्र चेतना की गूंज है। कवि यहां किसी के निर्देश पर चलने से मना करता है — उसे न तो किसी मार्गदर्शक की ज़रूरत है, न ही किसी पुराने पदचिह्न की। वह अपने रास्ते खुद बनाना चाहता है, और कांटों से भरे रास्ते को चुनकर उन्हें सींचता भी है — जैसे जानबूझकर संघर्षों को गले लगाता हो। यह एक ऐसी चेतना की अभिव्यक्ति है जो सुविधा नहीं, बल्कि तप और कष्ट को अपना सौंदर्य मानती है। “मुझे शूलों से प्यार है, फूलों पर कैसे चलूं मैं?” — यह पंक्ति इस पूरे दर्शन की धुरी है।
कवि उस दीपक के रूप को भी ठुकराता है जो चुपचाप जलता है, अंधेरे से हार जाता है, और जिसे दुनिया अच्छा मानती है। वह कहता है कि जब मैं खुद एक धधकती ज्वाला हूं, तो दीपक की सीमित भूमिका कैसे निभाऊं? यानी वह खुद को केवल "प्रकाश" देने वाला नहीं, बल्कि "परिवर्तन" लाने वाला मानता है — जो डर पैदा करता है, व्यवस्था को हिला सकता है। वह एक प्रलय की लौ है, जिसे कोई बाती में नहीं बांध सकता।
समाज जब उसे धार्मिक मार्ग दिखाता है — मंदिरों, मठों, मूर्तियों की ओर मोड़ता है — तो वह वहां भी रुकता नहीं। उसे मूर्तिपूजा की सांसों में अटकी हुई आस्था स्वीकार नहीं। वह भावना की सच्ची आहुति देना चाहता है, न कि परंपराओं की नकल करना। अंतिम पंक्तियों में वह अपने आध्यात्मिक शिखर पर पहुँचता है — "पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं?" — यह आत्मबोध का सबसे उच्चतम स्तर है। वह कहता है कि जब भीतर ही ईश्वर का प्रकाश है, तब बाहर की मूर्तियों को पूजने का ढोंग क्यों करूँ?
इस प्रकार, यह कविता केवल विद्रोह नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति, चेतना की आज़ादी, और आस्था के नए स्वरूप की उद्घोषणा है। यह उस व्यक्ति की आवाज़ है जो फूलों की राहों से नहीं, कांटों की आग से अपनी पहचान बनाता है — और पूरी दुनिया से कहता है: "मैं तुम्हारे बनाए फ्रेम में नहीं आता, क्योंकि मैं स्वयं दीप नहीं, प्रलय हूँ।"
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