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सुना था कि बेहद सुनहरी है दिल्ली - Suna Tha Ki Behad Sunheri Hai Dilli | Imran Pratapgarhi

आज देश की मिट्टी बोल उठी है | Rula Dene Wali Deshbhakti Kavita - रुला देने वाली देशभक्ति कविता

आज देश की मिट्टी बोल उठी है | Aaj Desh Ki Mitti Bol Uthi Hai

Rula Dene Wali Deshbhakti Kavita - रुला देने वाली देशभक्ति कविता

आज देश की मिट्टी बोल उठी है

आज देश की मिट्टी बोल उठी है  Rula Dene Wali Deshbhakti Kavita - रुला देने वाली देशभक्ति कविता

लौह-पदाघातों से मर्दित

हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी

रक्तधार से सिंचित पंकिल

युगों-युगों से कुचली रौंदी।


व्याकुल वसुंधरा की काया

नव-निर्माण नयन में छाया।

कण-कण सिहर उठे

अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका


शेषनाग फूत्कार उठे

साँसों से निःसृत अग्नि-शलाका।

धुआँधार नभी का वक्षस्थल

उठे बवंडर, आँधी आई,


पदमर्दिता रेणु अकुलाकर

छाती पर, मस्तक पर छाई।

हिले चरण, मतिहरण

आततायी का अंतर थर-थर काँपा


भूसुत जगे तीन डग में ।

बावन ने तीन लोक फिर नापा।

धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है।

आज देश की मिट्टी बोल उठी है।


आज विदेशी बहेलिए को

उपवन ने ललकारा

कातर-कंठ क्रौंचिनी चीख़ी

कहाँ गया हत्यारा?


कण-कण में विद्रोह जग पड़ा

शांति क्रांति बन बैठी,

अंकुर-अंकुर शीश उठाए

डाल-डाल तन बैठी।


कोकिल कुहुक उठी

चातक की चाह आग सुलगाए

शांति-स्नेह-सुख-हंता

दंभी पामर भाग न जाए।


संध्या-स्नेह-सँयोग-सुनहला

चिर वियोग सा छूटा

युग-तमसा-तट खड़े

मूक कवि का पहला स्वर फूटा।


ठहर आततायी, हिंसक पशु

रक्त पिपासु प्रवंचक

हरे भरे वन के दावानल

क्रूर कुटिल विध्वंसक।


देख न सका सृष्टि शोभा वर

सुख-समतामय जीवन

ठट्ठा मार हँस रहा बर्बर

सुन जगती का क्रंदन।


घृणित लुटेरे, शोषक

समझा पर धन-हरण बपौती

तिनका-तिनका खड़ा दे रहा

तुझको खुली चुनौती।


जर्जर-कंकालों पर वैभव

का प्रासाद बसाया

भूखे मुख से कौर छीनते

तू न तनिक शरमाया।


तेरे कारण मिटी मनुजता

माँग-माँग कर रोटी

नोची श्वान-शृगालों ने

जीवित मानव की बोटी।


तेरे कारण मरघट-सा

जल उठा हमारा नंदन,

लाखों लाल अनाथ

लुटा अबलाओं का सुहाग-धन।


झूठों का साम्राज्य बस गया

रहे न न्यायी सच्चे,

तेरे कारण बूँद-बूँद को

तरस मर गए बच्चे।


लुटा पितृ-वात्सल्य

मिट गया माता का मातापन

मृत्यु सुखद बन गई

विष बना जीवन का भी जीवन।


तुझे देखना तक हराम है

छाया तलक अखरती

तेरे कारण रही न

रहने लायक सुंदर धरती


रक्तपात करता तू

धिक्-धिक् अमृत पीनेवालो,

फिर भी तू जीता है

धिक्-धिक् जग के जीनेवालो!


देखें कल दुनिया में

तेरी होगी कहाँ निशानी?

जा तुझको न डूब मरने

को भी चुल्लू भर पानी।


शाप न देंगे हम

बदला लेने को आन हमारी

बहुत सुनाई तूने अपनी

आज हमारी बारी।


आज ख़ून के लिए ख़ून

गोली का उत्तर गोली

हस्ती चाहे मिटे,

न बदलेगी बेबस की बोली।


तोप-टैंक-एटमबम

सबकुछ हमने सुना-गुना था

यह न भूल मानव की

हड्डी से ही वज्र बना था।


कौन कह रहा हमको हिंसक

आपत् धर्म हमारा,

भूखों नंगों को न सिखाओ

शांति-शांति का नारा।


कायर की सी मौत जगत में

सबसे गर्हित हिंसा

जीने का अधिकार जगत में

सबसे बड़ी अहिंसा।


प्राण-प्राण में आज रक्त की सरिता खौल उठी है।

आज देश की मिट्टी बोल उठी है।


इस मिट्टी के गीत सुनाना

कवि का धन सर्वोत्तम


अब जनता जनार्दन ही है

मर्यादा-पुरुषोत्तम।


यह वह मिट्टी जिससे उपजे

ब्रह्मा, विष्णु, भवानी

यह वह मिट्टी जिसे

रमाए फिरते शिव वरदानी।


खाते रहे कन्हैया

घर-घर गीत सुनाते नारद,

इस मिट्टी को चूम चुके हैं

ईसा और मुहम्मद।

आज देश की मिट्टी बोल उठी है  Rula Dene Wali Deshbhakti Kavita - रुला देने वाली देशभक्ति कविता

व्यास, अरस्तू, शंकर

अफ़लातून के बँधी न बाँधी

बार-बार ललचाए

इसके लिए बुद्ध औ' गाँधी।


यह वह मिट्टी जिसके रस से

जीवन पलता आया,

जिसके बल पर आदिम युग से

मानव चलता आया।


यह तेरी सभ्यता संस्कृति

इस पर ही अवलंबित

युगों-युगों के चरणचिह्न

इसकी छाती पर अंकित।

रूपगर्विता यौवन-निधियाँ

इन्हीं कणों से निखरी

पिता पितामह की पदरज भी

इन्हीं कणों में बिखरी।


लोहा-ताँबा चाँदी-सोना

प्लैटिनम् पूरित अंतर

छिपे गर्भ में जाने कितने

माणिक, लाल, जवाहर।


मुक्ति इसी की मधुर कल्पना

दर्शन नव मूल्यांकन

इसके कण-कण में उलझे हैं

जन्म-मरण के बंधन।


रोई तो पल्लव-पल्लव पर

बिखरे हिम के दाने,

विहँस उठी तो फूल खिले

अलि गाने लगे तराने।


लहर उमंग हृदय की, आशा—

अंकुर, मधुस्मित कलियाँ

नयन-ज्योति की प्रतिछवि

बनकर बिखरी तारावलियाँ।


रोमपुलक वनराजि, भावव्यंजन

कल-कल ध्वनि निर्झर

घन उच्छ्वास, श्वास झंझा

नव-अंग-उभार गिरि-शिखर।


सिंधु चरण धोकर कृतार्थ

अंचल थामे छिति-अंबर,

चंद्र-सूर्य उपकृत निशिदिन

कर किरणों से छू-छूकर।


अंतस्ताप तरल लावा

करवट भूचाल भयंकर

अंगड़ाई कलपांत

प्रणय-प्रतिद्वंद्व प्रथम मन्वंतर।


किस उपवन में उगे न अंकुर

कली नहीं मुसकाई

अंतिम शांति इसी की

गोदी में मिलती है भाई।


सृष्टिधारिणी माँ वसुंधरे

योग-समाधि अखंडित,

काया हुई पवित्र न किसकी

चरण-धूलि से मंडित।


चिर-सहिष्णु, कितने कुलिशों को

व्यर्थ नहीं कर डाला

जेठ-दुपहरी की लू झेली

माघ-पूस का पाला।


भूखी-भूखी स्वयं

शस्य-श्यामला बनी प्रतिमाला,

तन का स्नेह निचोड़

अँधेरे घर में किया उजाला।


सब पर स्नेह समान

दुलार भरे अंचल की छाया

इसीलिए, जिससे बच्चों की

व्यर्थ न कलपे काया।


किंतु कपूतों ने सब सपने

नष्ट-भ्रष्ट कर डाले,

स्वर्ग नर्क बन गया

पड़ गए जीने के भी लाले।


भिगो-भिगो नख-दंत रक्त में

लोहित रेखा रचा दी,

चाँदी की टुकड़ों की ख़ातिर

लूट-खसोट मचा दी।


कुत्सित स्वार्थ, जघन्य वितृष्णा

फैली घर-घर बरबस,

उत्तम कुल पुलस्त्य का था

पर स्वयं बन गए राक्षस।


प्रभुता के मद में मदमाते

पशुता के अभिमानी

बलात्कार धरती की बेटी से

करने की ठानी।


धरती का अभिमान जग पड़ा

जगा मानवी गौरव,

जिस ज्वाला में भस्म हो गया

घृणित दानवी रौरव।


आज छिड़ा फिर मानव-दानव में

संघर्ष पुरातन

उधर खड़े शोषण के दंभी

इधर सर्वहारागण।


पथ मंज़िल की ओर बढ़ रहा

मिट-मिट नूतन बनता

त्रेता बानर भालु,

जगी अब देश-देश की जनता।


पार हो चुकी थीं सीमाएँ

शेष न था कुछ सहना,

साथ जगी मिट्टी की महिमा

मिट्टी का क्या कहना?


धूल उड़ेगी, उभरेगी ही

जितना दाबो-पाटो,

यह धरती की फ़सल

उगेगी जितना काटो-छाँटो।


नव-जीवन के लिए व्यग्र

तन-मन-यौवन जलता है

हृदय-हृदय में, श्वास-श्वास में

बल है, व्याकुलता है।


वैदिक अग्नि प्रज्वलित पल में

रक्त मांस की बलि अंजुलि में

पूर्णाहुति-हित उत्सुक होता

अब कैसा किससे समझौता?


बलिवेदी पर विह्वल-जनता जीवन तौल उठी है

आज देश की मिट्टी बोल उठी है।

-

शिवमंगल सिंह 'सुमन' | Shivmangal Singh "Suman"


आज देश की मिट्टी बोल उठी है

मुख्य अर्थ और भाव:

1. अत्याचार और शोषण का चित्रण:

कविता की शुरुआत में बताया गया है कि किस तरह भारत की धरती — "मिट्टी" — को सदियों से विदेशी आक्रांताओं, हिंसा, और शोषण ने कुचला है।

"लौह-पदाघातों से मर्दित... युगों-युगों से कुचली रौंदी।"
यहाँ लोहे के पैर, तोप-टैंक, और खून से सनी धरती उस दर्दनाक इतिहास को दर्शाते हैं जो भारत ने झेला।

2. जागृत होती वसुंधरा (धरती):

अब यह मिट्टी चुप नहीं है। अब यह जाग चुकी है। उसमें से विद्रोह की लपटें उठ रही हैं — यह क्रांति की आहट है।

"प्राण-प्राण में आज रक्त की सरिता खौल उठी है।
आज देश की मिट्टी बोल उठी है।"
यह एक प्रतीक है — जनता अब अन्याय के खिलाफ उठ खड़ी हुई है।

3. शोषकों और अत्याचारियों को ललकार:

कविता में विदेशी शासकों, लुटेरों, साम्राज्यवादियों को ललकारा गया है।

"झूठों का साम्राज्य बस गया, रहे न न्यायी सच्चे..."
यह पंक्तियाँ उस समय के औपनिवेशिक शासकों और उनके अत्याचारों के प्रति जनता के रोष को दर्शाती हैं।

4. अहिंसा बनाम आत्मरक्षा:

यहाँ कविता में यह भी बताया गया है कि अहिंसा का आदर्श महान है, लेकिन जब कोई भूखा, नंगा, और शोषित हो तो उसे शांति का पाठ न पढ़ाओ।

भूखों नंगों को न सिखाओ
शांति-शांति का नारा।
यह पंक्ति गांधीवाद और सशस्त्र संघर्ष के बीच के तनाव को इंगित करती है — जब हालात बेकाबू हों तो लड़ाई भी धर्म बन जाती है।

5. मिट्टी का गौरव और महत्व:

कवि भारत की मिट्टी को दैवत्व का रूप देता है —

यह वह मिट्टी जिससे उपजे ब्रह्मा, विष्णु, भवानी
ईसा और मुहम्मद ने इस मिट्टी को चूमा...
भारत की मिट्टी को सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वोपरि बताया गया है।
यह मिट्टी सभ्यता की जननी है, ज्ञान की स्रोत है, और मानवता की नींव है।

6. दानवता बनाम मानवता का संघर्ष:

कविता के अंत में यह स्पष्ट होता है कि यह सिर्फ किसी एक देश का संघर्ष नहीं, यह मानवता और दानवता के बीच का शाश्वत युद्ध है।

आज छिड़ा फिर मानव-दानव में संघर्ष पुरातन…
यह शोषण और संघर्ष, न्याय और अन्याय, स्वतंत्रता और दमन के बीच की लड़ाई है।

7. मिट्टी का विद्रोह और पुनर्जागरण:

कविता का संदेश है कि अब यह मिट्टी विद्रोह कर चुकी है। चाहे जितना भी दबाओ, काटो, जलाओ —

यह धरती की फ़सल उगेगी जितना काटो-छाँटो।
यह जीवन, ऊर्जा और नवजागरण का प्रतीक है — मिट्टी कभी हार नहीं मानती।

सारांश (Summary):

यह कविता भारत की पीड़ित मिट्टी की पुकार है, जो अब क्रांति की आवाज बन चुकी है। यह उस चेतना की कविता है जिसमें पीड़ा भी है, आक्रोश भी है, आत्मगौरव भी है, और पुनर्निर्माण की आशा भी।

  • यह भारत की गौरवशाली विरासत की याद दिलाती है,

  • औपनिवेशिक और आततायी शक्तियों को ललकारती है,

  • और आम जनता को आत्मसम्मान, आत्मबल और संघर्ष के लिए प्रेरित करती है।

मुख्य संदेश:

अब चुप रहने का समय नहीं रहा, अब तो देश की मिट्टी बोल उठी है — और जब मिट्टी बोलती है, तब इतिहास बदलता है।

आज देश की मिट्टी बोल उठी है  Rula Dene Wali Deshbhakti Kavita - रुला देने वाली देशभक्ति कविता

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