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ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota | Gulzar

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota

Gulzar Sahab Ghazal

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता 

मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता 

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota  Gulzar

यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता 

कोई एहसास तो दरिया की अना का होता 


साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती 

कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता 


काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं 

काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता 


क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए 

एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता |

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गुलज़ार

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota | Gulzar

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota

Gulzar Sahab Ghazal

aisā ḳhāmosh to manzar na fanā hotā

merī tasvīr bhī girtī to chhanākā hotā

yuuñ bhī ik baar to hotā ki samundar bahtā

koī ehsās to dariyā anā hotā

saañs mausam bhī kuchh der ko chalne lagtī

koī jhoñkā tirī palkoñ havā hotā

kāñch ke paar tire haath nazar aate haiñ

kaash ḳhushbū tarah rañg hinā hotā

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता - Aisa Khamosh To Manzar Na Fanaa Ka Hota  Gulzar

kyuuñ mirī shakl pahan letā hai chhupne ke liye

ek chehra koī apnā bhī ḳhudā hotā

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