अटल बिहारी वाजपेयी जी का राजनीतिक जीवन
“हार नहीं मानूँगा,
रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पर
लिखता–मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ।”
यह पंक्तियाँ किसी कवि की मात्र कल्पना नहीं हैं, बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी जी के राजनीतिक जीवन का सजीव प्रतिबिंब हैं। उनके जीवन में राजनीति कविता बन जाती है, कविता इतिहास में ढल जाती है और इतिहास राष्ट्रभक्ति का शिलालेख बन जाता है।
अटल जी के लिए राजनीति केवल भाषणों और सत्ता का माध्यम नहीं थी; वह भावनाओं, मूल्यों और विचारों से उपजी साधना थी। उनके शब्द सत्ता की सीढ़ियाँ नहीं थे, बल्कि आत्मा की सीढ़ियाँ थे। जब वे कहते हैं—“हार नहीं मानूँगा”—तो उसका अर्थ किसी चुनावी पराजय से नहीं, बल्कि समय की थकान और परिस्थितियों की कठोरता के विरुद्ध मनुष्य के अडिग संकल्प से होता है। स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों में, जब एक ही स्वर राष्ट्र की राजनीति में गूँज रहा था, तब अटल जी ने तर्क, मर्यादा और धैर्य का एक अलग गीत रचा।
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| कविता, विचार और राजनीति का दुर्लभ संगम — अटल बिहारी वाजपेयी |
1957 में संसद पहुँचना उनके लिए उपलब्धि नहीं, उत्तरदायित्व था। उन्होंने संसद को भाषणों का मंच नहीं, संवाद का आँगन बनाया। उनकी राजनीति में शालीनता कविता की तरह उतरती है— “रार नहीं ठानूँगा।” विरोध उनके स्वभाव में था, पर विद्वेष उनके विचारों का व्याकरण नहीं था। लखनऊ की तहज़ीब उनके लहजे में बसती थी, जहाँ असहमति भी अदब और गरिमा के साथ व्यक्त की जाती है। यही कारण था कि 1960 और 1970 के दशकों की लंबी प्रतीक्षा, चुनावी पराजय और विपक्ष की कठोरता भी उन्हें कड़वा नहीं बना सकीं। वे जानते थे कि लोकतंत्र में विचारों को समय चाहिए और समय को धैर्य।
राजनीतिक जीवन का सबसे कठिन अध्याय आपातकाल के समय आता है। यहाँ उनकी कविता साहस बन जाती है। जेल की दीवारें उनके विचारों को रोक नहीं पातीं। 1977 में विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया—यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान की घोषणा थी। यहाँ कविता कूटनीति बनती है और कूटनीति इतिहास।
1980 के बाद का समय पुनर्निर्माण का था। भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ, संगठन खड़ा हुआ—धीरे, पर स्थिरता के साथ। 1996 की तेरह दिन की सरकार में अटल जी ने बहुमत के अभाव में सत्ता त्याग कर लोकतंत्र को प्रणाम किया। यह पराजय नहीं, बल्कि राजनीतिक चरित्र की विजय थी। 1998–99 में वही कविता निर्णायक नेतृत्व बनकर लौटती है—पोखरण परीक्षण का साहस और संवाद की पहल, शक्ति और संयम का संतुलन। यही अटल-धर्म था।
1999 से 2004 का काल सृजन का समय रहा। गाँवों तक पहुँचती सड़कें, भविष्य की ओर देखती शिक्षा नीति, और आत्मविश्वास से भरी विदेश नीति—ये सभी शब्दों से निकले कर्म थे। 2004 की हार को भी उन्होंने शांति और गरिमा के साथ स्वीकार किया, जैसे कोई कवि अंतिम पंक्तियाँ लिखकर मौन हो जाए।
उनका हिंदुत्व भी कविता की तरह समावेशी था—भूमि को भूखंड नहीं, सभ्यता मानने वाला; हिमालय से सिंधु तक फैली सांस्कृतिक चेतना को अपना मानने वाला। जीवन के अंतिम वर्षों में जब शरीर थक गया, कविता मौन हो गई, पर उसका अर्थ कभी नहीं खोया।
अटल बिहारी वाजपेयी जी इसलिए स्मरण किए जाते हैं क्योंकि उन्होंने राजनीति को कविता, साहित्य को इतिहास और इतिहास को राष्ट्रभक्ति में रूपांतरित कर दिया। वे समय के कपाल पर लिखते भी रहे, मिटाते भी—और हर बार राष्ट्र के लिए एक नया गीत गाते रहे।
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| अटल जी के 100 वर्ष — जहाँ शब्द सत्ता नहीं, संस्कार बन जाते हैं। |
काव्यात्मक श्रद्धांजलि: कोटि चरण बढ़ रहे (वीडियो)
अटल जी की 100वीं जयंती के अवसर पर उनकी प्रसिद्ध कविता का पाठ यहाँ देखें:
लेखकीय संदर्भ एवं विश्लेषण (Author's Context)
अटल बिहारी वाजपेयी जी का यह विश्लेषण उनके 100वें वर्ष की स्मृति में लिखा गया है। यह लेख उनके उस राजनीतिक चरित्र को उजागर करता है जहाँ सिद्धांत सत्ता से ऊपर थे। यदि आप इस लेख की साहित्यिक गहराई को और बारीकी से समझना चाहते हैं, तो मेरा लेख How to Write Critical Appreciation of a Poem आपके लिए सहायक सिद्ध होगा।
इसके अतिरिक्त, वाजपेयी जी के 'जय विज्ञान' विजन और आज की शिक्षा नीति के अंतर्संबंधों को मेरे शोध Accessibility and Inclusion using Digitalisation में देखा जा सकता है। उनके समय की लोकतांत्रिक सक्रियता और वर्तमान दौर की Political Apathy and Voter Turnout के बीच का तुलनात्मक अध्ययन लोकतंत्र की नींव को समझने के लिए अनिवार्य है। उनकी काव्य-प्रेरणाओं को गहराई से जानने के लिए आप मेरा संकलन Mahabharata Poems भी पढ़ सकते हैं।
लेखक परिचय: यह लेख हर्ष नाथ झा (Harsh Nath Jha) द्वारा पूर्णतः रचित है, जो साहित्यशाला पर निरंतर राजनीति और साहित्य के संगम पर शोधपरक विचार साझा करते रहते हैं।