सूर्यपुत्र कर्ण पर कवि विनीत चौहान की अद्वितीय कविता
Mahabharata Poems In Hindi
Mahabharata Par Hindi Kavita

निज कवच और कुंडल जिसने सुरपति को हँस कर दिये दान,
मरने तक वचन नहीं तोड़ा निज म्रत्यु का रख लिया मान |
जिसके भुजबल मे बसते थे, युध्दो के सारे निर्णय भी,
वो सूर्य पुत्र, वो रश्मिरथी, वो दान वीर अतुलित महान ||
रण के निर्णय मानव इतने नही कभी भी होते,
धर्म बिछे यदि चौसर पर तो भाग्य मनुज के रोते |
न्याय और अन्याय कभी जब एक तुला पर तुलते,
पीड़ा और घुटन मिलकर जब आँसू भीतर घुलते ||
तो समझो उस महा म्रत्यु को तांडव रत होना है,
कुरुक्षेत्र के प्रांगण मे तब महाभारत होना है |
युद्धो ने मानव का लहु अनगिन बार पिया है,
कुरुक्षेत्र मे भी प्राणोत्सव अनगिन बार जिया है ||
कुरुक्षेत्र भी न्याय और अन्याय युगल संगम था,
हार और झूठ सत्य का ना कोई भी गम था |
सूर्य पुत्र, वह रश्मिरथी भी इसी नियती का हिस्सा,
दिवस अढाई रहा समर मे कीर्ति कथा का किस्सा |
गुरु द्रोण के बाद कर्ण ही सेना का नायक था,
और उधर अर्जुन के रथ पर गीता का गायक था |
आधा दिन तो कुरु सेना संग केवल शोक मनाया,
धर्मराज के अर्धसत्य को तर्को से सुलझाया !!
दुर्योधन ने किया निवेदन पास शल्य के जाकर,
सुना शल्य ने जैसे ही वो बोले यु चिल्लाकर -
सूत पुत्र है कर्ण और मै गर्वित मद्र राज हूँ,
भुज बल मे है तुच्छ कर्ण मै उन्नत शैल राज हूँ |
मै उसका रथ हाँकू ऐसा अगर समय आयेगा,
तो भी इस दुसाहस का भी दंड कर्ण पायेगा |
विनत सुयोधन बोले - सचमुच मेरी मजबूरी है,
बिना आपके रण मे उसकी जैसे भी दूरी है |
केशव ने भी मित्र धर्म में अर्जुन का रथ हाँका,
इसिलिये तो रण मे उसका हुआ बाल कब बाँका |
अगर आप बन गये सारथी साहस ना रीतेगा,
अर्जुन का वध करके ही बस कर्ण समर जीतेगा ||
अनुनय और विनय के आगे सदा हारती हठ है,
स्वीक्रतिया बन गयी सहज ही नाना की जो रट है |
शल्य कर्ण के बने सारथी, जो खुद महारथी थे,
रण भेरी बज गयी युद्ध की शस्त्रो सहित रथी थे ||
लगे युद्ध मे बाण बरसने - तलवारे चमती थी,
गदा भीम की पड़ती थी तो धरती भी गमकी थी |
अर्जुन और कर्ण के बाणो से बरसी ज्वाला सी,
रण चंडी पहने जाती थी मुंडो की माला सी ||
एक-एक कर रथी और योद्धा कट गये हजारो,
संम्रागण मे गूंज रहा था सर्वस्व मारो-मारो |
आज खून की कीमत पानी से ज्यादा सस्ती थी,
कौन कर्ण के आगे टिकता किसकी ये हस्ती थी ||
किंतु शल्य के कटु वचनो को कर्ण साथ सहता था,
बाण सहु या व्यंग बाण निर्णय करता रहता था !!
तभी युधिष्टर का रथ उसके रथ के आगे आया,
भरे क्रोध से अंगराज ने घातक बाण चलाया |
लगे काँपने धर्मराज जो काल सामने आया,
भागे शस्त्र छोड़ रण थल से ऐसा जी घबराया ||
लेकिन रश्मिरथि ने उनको पीछे से जा पकड़ा,
धर्मराज को लगा म्रत्यु ने आज उन्हे आ जकड़ा |
बोले शल्य युधिष्टर का किंचित अपमान ना करना,
किया अगर अपमान समझ लो तुम्हे पड़ेगा मरना ||
हँस कर बोले कर्ण युधिष्टर क्यो लड़ने आते हो ?
ये बच्चो का खेल नही जो पीठ दिखा जाते हो |
जाओ माँ कुंती से कहना वचन नही तोड़ूगा,
अर्जुन के अतिरिक्त सभी को जिंदा ही छोड़ूगा ||
लज्जित धर्मराज रण थल से साथ नकुल के भागे,
और शल्य ले आये रथ को अर्जुन के आगे |
बोले जितना पौरुष है सब अर्जुन को दिखलाओ,
कितना बांहो मे दम-खम है वो सारा बतलाओ ||
कहा कर्ण ने शल्य सदा कायर बाते करते हो,
रश्मिरथि के रथ पर हो कर क्यो इतना डरते हो |
सूर्य पुत्र को रण मे मारे ऐसा भू पर बाण कहा है ?
विजय विवश हो पीछे आती चलता कर्ण जहा है ||
आज समझ लो कुरुक्षेत्र मे इतना लहू बहेगा,
कर्ण और अर्जुन से बस जीवित एक रहेगा |
यही प्रतिग्या ने अर्जुन भी केशव संग आये थे,
सूर्यपुत्र का अंत करुंगा कसम आज खाये थे ||
दोनो के रथ सम्मुख आये महासमर मे जिस क्षण,
अंबर मे जुट गये देवगण युद्ध देखने तत्क्षण |
अश्वथामा ने दुर्योधन को तब भी समझाया,
होगे दुष्परिणाम युद्ध के बार-बार बतलाया ||
बोला दोनो महावीर पर एक आज हारेगा,
एक बचेगा जीवित निश्चित दूजे को मारेगा |
दुर्योधन बोला- लेकिन अब देर हो चुकी काफी,
अब ना संधि का समय बचा जो माँगे कोई माफी |
अब जो होगा रण मे होगा यही भाग्य का लेखा,
लडते वीर विजय की खातिर किसने है कल देखा ||
केशव ने भी अर्जुन को कर सावधान समझाया,
अर्जुन ने गांडीव उठाकर पहला बाण चलाया |
राधा पुत्र समर कौशल ना अर्जुन से कम था,
निभा रहा था मित्र धर्म ना पाप पुण्य का गम था ||
क्या कौंतेय और राधा के सुत के बीच समर था ?
नही इधर था दूध प्रथा का लड़ता रक्त उधर था |
वीर कर्ण ने बाणो की कुछ ऐसी झड़ी लगा दी,
केशव समझ गये थे रण मे होगी कठिन परिक्षा,
और पार्थ को लेनी होगी स्वंम काल से दीक्षा |
दिव्य बाण तरकश से दोनो योद्धा खींच रहे थे,
और रक्त से सम्रांगण मे अविरल सींच रहे थे |
दोनो के बाणो से भू पर शीश पड़े थे कटकर,
सम्रांगण भर गया समूचा लाशो से पटकर ||
अर्जुन ने क्रोधित होकर के कर्ण पुत्र को मारा,
रश्मिरथि के आँखो से तब बही अस्रु की धारा |
जैसे अभिमन्यु के वध पर वीर पार्थ पागल था,
ऐसे ही व्रशसेन म्रत्यु पर आज कर्ण घायल था ||
क्रुध कर्ण ने अर्जुन पर बाणो की वर्षा कर दी,
अर्जुन ने भी दिव्य हाथो से दसो दिशाये भर दी |
बहुत देर हो गयी समर को प्रहर दूसरा बीता,
ना कोई इस रण मे हारा ना कोई भी जीता ||
आखिर सर्प बाण तरकश से हाथ कर्ण के आया,
अब अर्जुन का वध निश्चित है हर सैनिक चिल्लाया |
प्रत्यंचा कानो तक खींची,बाण कर्ण ने छोड़ा,
केशव ने रथ के घोड़ो को त्वरित दाहिने मोड़ा ||
घुटनो तक झुक गये अश्व बस बाण कंठ तक आया,
किंतु लगा वह दिव्य मुकुट मे प्रभु की थी सब माया |
प्राण बचे अर्जुन घबराये पर केशव मुस्काये,
बोले पार्थ साथ मे मै हुँ किंचित ना घबराये ||
इधर कर्ण के संग पार्थ का रिपु तक्षक बेटा था,
अश्वसेन तरकश मे था जो तीर संग लेटा था |
कहा कर्ण से - रखो बाण पर प्राण पार्थ के लूंगा,
मेरा प्रण पूरा हो तुम उपकार नही भूलूंगा |
कहा कर्ण ने - बाण दोबारा मै संधान ना करता,
अपने ही बलबूते पर मै विजय श्री को वरता |
सर्पो के बल पर रण मे यदि कर्ण युद्ध जीतेगा ?
जितना समय बचा जीवन मे लानत मे बीतेगा ||
क्रोधित अश्वसेन तब अर्जुन पर फुंकारा,
लेकिन अर्जुन के बाणो से सीधा स्वर्ग सिधारा |
लगा युद्ध कर्ण और अर्जुन मे फिर से होने,
दोनो आतुर थे मुंडो को रण खेतो मे बोने ||
ग्यारह डोरी वीर कर्ण ने बार धनुष की काटी,
अर्जुन ने लहु से रंग दी कुरुक्षेत्र की माटी |
तभी कर्ण का रथ थोड़ा सा एक तरफ झुकाया,
पहिया लगा भुमि मे धँसने देख कर्ण घबराया ||
याद आ गया श्राप गऊ का विचलित अंगराज था,
परशुराम का दिव्य अस्त्र भी विसमित हुआ आज था |
फिर भी कोशिश करी कर्ण ने रथ का पहिया निकले,
लेकिन प्रथ्वी रथ का पहिया जाती थी जो निगले ||
विवश कर्ण ने धनुष रखा फिर रथ के नीचे उतरा,
शस्त्रहीन वो विरत खड़ा था ले प्राणो का खतरा |
अर्जुन धर्मयुद्ध है ये मै पहिया बाहर कर लूँ,
फिर ठानुगा युद्ध भले ही जीऊ चाहे मर लूँ ||
अर्जुन कुछ कहते इससे पहले ही केशव बोले -
कर्ण धर्म की बाते पहले दिल के भीतर तोले |
कहा गया था धर्म तुम्हारा जब अभिमन्यु मारा,
शकुनि के पासो से हमने राज जुऐ मे हारा,
द्रोपदि अकेली रही चीखती लाज तुम्हे ना आयी,
बाल भीम को जहर खिलाया ये थी क्या चतुराई,
आज म्रत्यु सिर पर नाची तो याद धर्म करते हो,
शस्त्र उठाओ युद्ध करो या अगले पल मरते हो,
कहा - पार्थ तुम शंका छोड़ो व्यर्थ ना संशय पालो |
पाप पुण्य सब मै देखूंगा वध इसका कर डालो ||
कहा कर्ण ने पाप पुण्य का निर्णय वक्त करेगा,
पर जो यम से डरता है जो पल-पल सदा मरेगा |
होकर विवश कर्ण ने अपना धनुष उठाया कर मे,
और भरी सब दिव्य शक्तियाँ एक-एककर कर मे |
कर्ण धरा पर खड़ा हुआ अंबर सा मस्तक लेकर,
दुर्योधन को विजय दिलानी थी जीवन भी देकर |
जितनी ताकत थी अर्जुन मे सभी समेटी कर मे,
द्रुपदा का अपमान-मान-सम्मान भरे सब क्षर मे |
याद किया लाक्षाग्रह को शकुनि के पासो को,
अग्यात वास मे साल कटे जो दिवस और मासो को ||
एक एक सर रश्मिरथि का वक्ष भेदता जाता,
मगर कर्ण के प्राणो से भी अर्जुन चैन ना पाता |
कभी समर मे ज्वाला बरसी कभी मेघ झरते थे,
अश्व रथो से भागे हाथी चिंघाड़े भरते थे ||
तभी मुर्छित हुये पार्थ और कर्ण बली घायल थे,
दोनो के रण कौशल से योद्धा तक कायल थे |
तभी कर्ण के दिव्य बाण से मुर्छित पार्थ हुये थे,
और कर्ण कोशिश की बस रथ के चक्र छुऐ थे ||
केशव बोले यही समय है पार्थ कर्ण को मारो !
पाप पुण्य का चक्कर छोड़ो ज्यादा नही विचारो |
तंद्रा भंग हुई अर्जुन की झट गांडीव उठाया,
लक्ष्य साध कर विरत कर्ण पर तीखा बाण चलाया ||
कटा शीश तब रश्मिरथी का भू पर पड़ा हुआ था,
लेकिन जय पाकर भी अर्जुन लज्जित खड़ा हुआ था |
पांचजन्य फूंका केशव ने पांडव सब हर्षाये,
दुर्योधन ने महाम्रत्यु पर अश्रु बिंदु छलकाये ||
आज विदा हो गया धरा से वचन निभाने वाला,
नही जगत मे था मैत्री का धर्म सिखाने वाला |
प्रणपालक को दानवीर जो रहा भाग्य का हेटा,
प्रथा पुत्र या सूत पुत्र था समर भूमि मे लेटा |
आज युधिष्टर सोयेगे बस सुख से आँखे मूंदे |
और कही कुंती के द्रग से छलकेगी कुछ बूंदे ||