Hukmran Ho Gaye Kamine Log: The Poetry of Defiance
इतिहास गवाह है कि जब भी किसी देश में लोकतंत्र का गला घोंटा गया है, साहित्यकारों ने ही सबसे ऊँची आवाज़ उठाई है। पाकिस्तान के इतिहास में जनरल Zia-ul-Haq का शासनकाल (1977-1988) एक ऐसा दौर था जब अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए धर्म और राष्ट्रवाद का बेजा इस्तेमाल किया गया। इसी दौर के अंधेरों को चीरती हुई एक आवाज़ उभरी—हबीब जालिब (Habib Jalib) की।
उनकी यह नज़्म "हुक्मरान हो गए कमीने लोग" महज़ एक कविता नहीं, बल्कि उस राजनीतिक विद्रूपता (Political Absurdity) का दस्तावेज़ है जहाँ 'रक्षक' ही 'भक्षक' बन जाते हैं। जिस साहस के साथ भारत में बाबा नागार्जुन ने आपातकाल के दौरान सत्ता को चुनौती दी थी, ठीक उसी तेवर में जालिब ने लाहौर की सड़कों पर लाठियाँ खाते हुए यह नज़्म पढ़ी थी। यह कविता उन तमाम सत्ताओं के लिए एक आईना है जो जनता (ख़ल्क़) को भूलकर अपनी तिजोरियाँ भरने में मशगूल हैं।
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| Conceptual art depicting the fall of corrupt rulers and the rise of the common people. |
1. संशोधित पाठ: हिंदी लिरिक्स (Corrected Hindi Lyrics)
इंटरनेट पर इस नज़्म के कई अशुद्ध रूप मौजूद हैं जहाँ 'ख़ल्क़' को 'हल्क' या 'तलक' को 'तलाक़' लिख दिया गया है। नीचे दिया गया पाठ वीडियो रिकॉर्डिंग और उर्दू व्याकरण के आधार पर पूर्णतः संशोधित (Tallied & Corrected) है:
ख़ाक में मिल गए नगीने लोग
हर मुहिब्ब-ए-वतन ज़लील हुआ
रात का फ़ासला तवील हुआ
आमिरों के जो गीत गाते रहे
वही नाम-ओ-दाद पाते रहे
रहज़नों ने जो रहज़नी की थी
रहबरों ने भी क्या कमी की थी
एक बार और हम हुए तक़सीम
एक बार और दिल हुआ दो-नीम
ये फ़साना है पासबानों का
चाक-चौबंद नौजवानों का
सरहदों की न पासबानी की
हमसे ही दाद ली जवानी की
इक नज़र अपनी ज़िंदगी पर डाल
इक नज़र अपने अर्दली पर डाल
फ़ासला ख़ुद ही कर ज़रा महसूस
यूँ न इस्लाम का निकाल जुलूस
ये ज़मीन तो हसीन है बेहद
हुक्मरानों की नीयतें हैं बद
हुक्मराँ जब तलक हैं ये बेदर्द
इस ज़मीन का रहेगा चेहरा ज़र्द
ये ज़मीन जब तलक न लेंगे हम
इससे उगते रहेंगे यूँ ही ग़म
बे-घरी को करेंगे हम ही दूर
हम ही देंगे दिलों को प्यार का नूर
ख़ल्क़ सदियों के ज़ुल्म की मारी
यूँ न हैरान फिरेगी बेचारी
रोटी, कपड़ा, मकान हम देंगे
अहल-ए-मेहनत को शान हम देंगे
इस खिज़ाँ को मिटाएँगे हम ही
फ़स्ल-ए-गुल लेके आएँगे हम ही
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| Poetry that shook the corridors of power. |
2. असल लहज़ा: उर्दू मतन (Original Urdu Lyrics)
خاک میں مل گئے نگینے لوگ
ہر محبِ وطن ذلیل ہوا
رات کا فاصلہ طویل ہوا
امیروں کے جو گیت گاتے رہے
وہی نام و داد پاتے رہے
رہزنوں نے جو رہزنی کی تھی
رہبروں نے بھی کیا کمی کی تھی
ایک بار اور ہم ہوئے تقسیم
ایک بار اور دل ہوا دو نیم
یہ فسانہ ہے پاسبانوں کا
چاک چوبند نوجوانوں کا
سرحدوں کی نہ پاسبانی کی
ہم سے ہی داد لی جوانی کی
اک نظر اپنی زندگی پر ڈال
اک نظر اپنے اردلی پر ڈال
فاصلہ خود ہی کر ذرا محسوس
یوں نہ اسلام کا نکال جلوس
یہ زمیں تو حسین ہے بے حد
حکم رانوں کی نیتیں ہیں بد
حکمراں جب تلک ہیں یہ بے درد
اس زمیں کا رہے گا چہرہ زرد
یہ زمیں جب تلک نہ لیں گے ہم
اس سے اگتے رہیں گے یوں ہی غم
بے گھری کو کریں گے ہم ہی دور
ہم ہی دیں گے دلوں کو پیار کا نور
خلق صدیوں کے ظلم کی ماری
یوں نہ حیران پھرے گی بیچاری
روٹی، کپڑا، مکان ہم دیں گے
اہلِ محنت کو شان ہم دیں گے
اس خزاں کو مٹائیں گے ہم ہی
فصلِ گل لے کے آئیں گے ہم ہی
गहन विश्लेषण: शब्द और उनके मायने (Detailed Analysis)
जालिब की शायरी को समझने के लिए हमें साहित्य की सतही परतों से नीचे उतरना होगा। यह नज़्म आधुनिकतावाद (Modernism) की जटिलताओं से दूर, सीधी चोट करती है। नीचे इस नज़्म के हर पहलू का विस्तार से विश्लेषण किया गया है:
"हुक्मराँ हो गए कमीने लोग, ख़ाक में मिल गए नगीने लोग"
व्याख्या: यहाँ 'कमीने' शब्द का प्रयोग गाली के तौर पर नहीं, बल्कि चारित्रिक और नैतिक गिरावट को दर्शाने के लिए किया गया है। यह पंक्ति उस विडंबना को उजागर करती है जहाँ समाज के 'नगीने' (बुद्धिजीवी, ईमानदार और योग्य लोग) हाशिए पर धकेल दिए गए हैं और सत्ता अयोग्य हाथों में है।
"ये फ़साना है पासबानों का... सरहदों की न पासबानी की"
व्याख्या: 'पासबान' (रक्षक/फौज) का मूल कर्तव्य सीमाओं की रक्षा था। लेकिन जब वे राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे, तो देश की सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई। यह पंक्ति रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की उन कविताओं की याद दिलाती है जो सत्ता के वर्दीधारी चरित्र पर सवाल उठाती हैं।
"इक नज़र अपने अर्दली पर डाल... यूँ न इस्लाम का निकाल जुलूस"
व्याख्या: यह इस नज़्म का सबसे साहसी शेर है। तानाशाह महलों में ऐश कर रहे हैं जबकि उनका 'अर्दली' (सेवक) दाने-दाने को मोहताज है। जालिब कहते हैं कि इस्लाम तो बराबरी का मज़हब है; अपनी विलासिता को धर्म की आड़ में मत छिपाओ। यह धर्म के नाम पर पाखंड का पर्दाफ़ाश है।
"रोटी, कपड़ा, मकान हम देंगे, अहल-ए-मेहनत को शान हम देंगे"
व्याख्या: यहाँ जालिब एक समाजवादी सपना बुनते हैं। 'अहल-ए-मेहनत' (कामगार वर्ग) को उनका हक और सम्मान देने की बात कही गई है। यह केवल कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि आर्थिक असमानता के उस बुनियादी सिद्धांत पर चोट है, जिसका ज़िक्र हम अक्सर आर्थिक और वित्तीय विश्लेषणों में करते हैं—कि असली विकास तभी है जब निचले तबके को 'शान' मिले।
"इस खिज़ाँ को मिटाएँगे हम ही, फ़स्ल-ए-गुल लेके आएँगे हम ही"
व्याख्या: खिज़ाँ (पतझड़) निराशा और जुल्म का प्रतीक है, जबकि फ़स्ल-ए-गुल (बहार) उम्मीद और न्याय का। कवि का मानना है कि यह बदलाव कोई नेता नहीं लाएगा, बल्कि आम जनता ('हम ही') लाएगी।
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| "फ़स्ल-ए-गुल लेके आएँगे हम ही": The promise of a new dawn. |
निष्कर्ष
हबीब जालिब की "हुक्मरान हो गए कमीने लोग" महज़ एक दौर की कहानी नहीं है। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, चाहे हम पाकिस्तान की बात करें या दुनिया के किसी भी हिस्से की। यह नज़्म हमें याद दिलाती है कि "मैं नहीं मानता" (दस्तूर) कहने का साहस ही लोकतंत्र को ज़िंदा रखता है। इसी तरह की बेबाक और क्रांतिकारी रचनाओं को पढ़ने के लिए, हमारे Best Hindi Poetry Collection और शोएब कियानी की शायरी को ज़रूर पढ़ें।
Watch: Powerful Recitation of 'Hukmran Ho Gaye'
Frequently Asked Questions (FAQ)
Q: 'नगीने' और 'कमीने' का प्रतीक क्या है?
A: 'नगीने' देश के ईमानदार, योग्य और बुद्धिमान नागरिक हैं, जबकि 'कमीने' वे भ्रष्ट लोग हैं जिन्होंने अनैतिक तरीकों से सत्ता और संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया है।
Q: 'ख़ल्क़' (Khalq) शब्द का सही अर्थ क्या है?
A: कई जगह इसे गलती से 'हल्क' (गला) लिखा जाता है, जो गलत है। सही शब्द 'ख़ल्क़' है, जिसका अर्थ है 'सृष्टि', 'दुनिया' या 'आम जनता'।
Q: यह नज़्म किस ऐतिहासिक संदर्भ में लिखी गई थी?
A: यह नज़्म पाकिस्तान में जनरल ज़िया-उल-हक के मार्शल लॉ (1977-1988) के तानाशाही दौर में लिखी गई थी। यह उस समय की सेंसरशिप और धार्मिक पाखंड के खिलाफ एक खुला विद्रोह थी।
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External Reference: Habib Jalib on Rekhta


