राजनीतिक विद्रूपता: लोकतंत्र और नैतिकता का संकट (एक गहन विश्लेषण)
|
| चित्र: राजनीतिक मंच का व्यंग्यात्मक चित्रण — जहाँ मुखौटे बदलते हैं, किरदार नहीं। |
"राजनीति जब संभावनाओं की कला (Art of Possibility) के बजाय केवल 'समझौतों का खेल' बन जाए, तो उसे विद्रूपता कहा जाता है।"
समकालीन भारतीय राजनीति एक अजीबोगरीब दौर से गुज़र रही है। इसे केवल भ्रष्टाचार कहना इसका सरलीकरण होगा। यह राजनीतिक विद्रूपता (Political Absurdity) का दौर है—जहाँ विचारधाराएं रबर की तरह लचीली हैं और वफादारी शेयर बाज़ार की तरह अस्थिर। यह लेख इस "वैचारिक शून्य" (Ideological Vacuum) की पड़ताल करता है।
एक तरफ हम वैश्विक शक्ति बनने का स्वप्न देखते हैं, तो दूसरी तरफ हमारी संसद में बहसों का स्तर रसातल में जा रहा है। यह विरोधाभास ही आज के राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय विषय है।
विचारधारा का अंत और 'आया राम गया राम' संस्कृति
भारतीय राजनीति में 1967 के बाद शुरू हुई 'आया राम गया राम' की संस्कृति आज अपने चरम पर है। पहले दल-बदल (Defection) शर्म का विषय हुआ करता था, आज इसे 'चाणक्य नीति' या 'मास्टरस्ट्रोक' कहा जाता है। जब एक राजनेता सुबह किसी एक विचारधारा की शपथ लेता है और शाम को ठीक विपरीत विचारधारा की गोद में बैठ जाता है, तो यह जनता के जनादेश का अपमान है।
इस अवसरवाद ने समाज को भ्रमित कर दिया है। युवा पीढ़ी, जो राजनीति में आदर्श खोजती है, उसे केवल छल मिलता है। इस संदर्भ में, सामाजिक आक्रोश अक्सर गलत दिशा में मुड़ जाता है। जैसा कि हमने युवा मानसिकता और आक्रोश के विश्लेषण में पाया, समाज अक्सर "पैजामे" (सतही मुद्दों) पर लड़ता है, जबकि लोकतंत्र की आत्मा (मूल मुद्दों) पर प्रहार हो रहा होता है।
नैतिकता का संकट: मिथक बनाम यथार्थ
राजनीति और नैतिकता का संबंध हमेशा से जटिल रहा है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में चेतावनी दी थी कि "राजनीति में भक्ति (Hero-worship) तानाशाही की ओर ले जाती है।" आज हम उसी दौर में हैं।
भारतीय साहित्य में 'राम' को आदर्श राजा माना गया है, न कि भगवान। उनका जीवन 'मर्यादा' का पर्याय था—वचन और त्याग की मर्यादा। आज के नेतृत्व के संदर्भ में, जब हम मर्यादित नेतृत्व की अवधारणा की तुलना वर्तमान से करते हैं, तो एक भयावह शून्यता नज़र आती है। जहाँ कभी मूल्यों के लिए राज्य त्यागे जाते थे, आज कुर्सी के लिए राज्य जलाए जा सकते हैं।
विद्रूपता के विरुद्ध साहित्य का प्रतिरोध
जब मुख्यधारा का मीडिया सत्ता का चारण बन जाए, तब साहित्य 'विपक्ष' की भूमिका में आता है। हिंदी व्यंग्य की परंपरा—हरिशंकर परसाई से लेकर गीत फरोश जैसे प्रयोगधर्मी कवियों तक—ने हमेशा इस विद्रूपता को नंगा किया है।
"राजा नंगा है—यह कहने का साहस केवल एक बच्चा या एक कवि ही कर सकता है।"
बाबा नागार्जुन की कविताएं इसका प्रमाण हैं। उन्होंने सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को कभी नहीं बख्शा। उनकी महारानी एलिजाबेथ पर लिखी कविता केवल एक विदेशी अतिथि पर टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह भारत के उन "काले साहबों" पर व्यंग्य था जो आज़ादी के बाद भी मानसिक गुलामी में जी रहे थे। यह प्रवृत्ति आज भी वी.आई.पी. संस्कृति (VIP Culture) के रूप में जीवित है।
लोकतंत्र का बाज़ारीकरण
राजनीतिक विद्रूपता का एक गहरा संबंध अर्थशास्त्र से है। चुनाव अब विचारों का संघर्ष नहीं, बल्कि पूंजी का निवेश है। क्रोनी कैपिटलिज्म (Crony Capitalism) ने नीतियों को जनहित से हटाकर कॉर्पोरेट हित की ओर मोड़ दिया है।
एक जागरूक नागरिक को यह समझना होगा कि सत्ता, बाज़ार और मीडिया का यह त्रिकोण कैसे काम करता है। आर्थिक साक्षरता के बिना राजनीतिक साक्षरता अधूरी है। (बाज़ार और नीतियों की इस जटिलता को समझने के लिए, हमारा वित्तीय विश्लेषण खंड सहायक हो सकता है, जहाँ हम 'आम आदमी' पर पड़ने वाले आर्थिक प्रभावों की चर्चा करते हैं)।
💡 एक जागरूक नागरिक की जिम्मेदारी: आर्थिक स्वतंत्रता
राजनीतिक विद्रूपता और अनिश्चितता के इस दौर में, केवल व्यवस्था को कोसना काफी नहीं है। सच्चा लोकतंत्र तब शुरू होता है जब नागरिक आर्थिक रूप से स्वतंत्र और सुरक्षित हों। अपनी वित्तीय नींव को मजबूत करने के लिए हमारे ये दो महत्वपूर्ण गाइड जरूर पढ़ें:
निष्कर्ष: मौन टूटेगा कैसे?
राजनीतिक विद्रूपता का अंत केवल सरकारें बदलने से नहीं होगा; इसके लिए लोक-चेतना (Public Consciousness) का बदलना आवश्यक है।
हमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों—जैसे मैथिली लोक-साहित्य की सामूहिकता—और आधुनिक वैश्विक चिंतन (Global Thought) के बीच संतुलन बनाना होगा। हमें संस्कार और शिक्षा के माध्यम से ऐसी पीढ़ी तैयार करनी होगी जो प्रश्न पूछने से न डरे।
जैसा कि नीचे दिए गए वीडियो में चर्चा की गई है, जागरूकता ही लोकतंत्र की ढाल है।
अंत में, दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति आज के दौर की विद्रूपता और संघर्ष को बखूबी बयां करती है—
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।"
चिंतन और प्रश्न (FAQs)
1. राजनीतिक विद्रूपता का लोकतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है?
यह नागरिकों में 'राजनीतिक अलगाव' (Political Alienation) पैदा करता है। जब जनता को लगता है कि सभी विकल्प भ्रष्ट हैं, तो वे मतदान और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से विमुख हो जाते हैं।
2. क्या केवल कानून बनाकर राजनीति सुधारी जा सकती है?
नहीं। कानून (जैसे दलबदल विरोधी कानून) केवल ढांचा दे सकते हैं, लेकिन जब तक राजनीतिक दलों में 'आंतरिक लोकतंत्र' और नेताओं में 'नैतिक भय' नहीं होगा, कानून के चोर-रास्ते ढूंढ़ लिए जाएंगे।