साहित्य के इतिहास में कुछ रचनाएँ वक्त की धूल में खो जाती हैं, और कुछ रचनाएँ स्वयं 'वक्त' बन जाती हैं। हबीब जालिब (Habib Jalib) की नज़्म "दस्तूर" (Dastoor), जिसे अवाम "मैं नहीं मानता" के नाम से जानती है, प्रतिरोध की एक ऐसी ही कालजयी मशाल है।
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| Symbolism: The pen as a weapon against the elite 'Mahallaat'. |
1962 का वह दौर जब पाकिस्तान जनरल अयूब खान के मार्शल लॉ के साये में था, जालिब ने एक ऐसे 'दस्तूर' (संविधान) को चुनौती दी जो लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही का पोषण कर रहा था। यह नज़्म केवल राजनैतिक विरोध नहीं है, बल्कि यह उस राजनैतिक विद्रूपता (Political Absurdity) के विरुद्ध एक दार्शनिक विद्रोह है जो आज भी वैश्विक स्तर पर प्रासंगिक है।
हबीब जालिब: अवामी शायर और प्रतिरोध की परंपरा
जालिब की शायरी महफिलों की ज़ीनत बनने के लिए नहीं, बल्कि सड़कों पर इंकलाब जगाने के लिए थी। जब अयूब खान का नया संविधान अमीरों की सुरक्षा की ढाल बना, तब जालिब ने उसे 'सुब्ह-ए-बे-नूर' (बिन रोशनी की सुबह) कहकर ठुकरा दिया। उनका यह तेवर हमें रमाशंकर यादव 'विद्रोही' और पाश की क्रांतिकारी परंपरा की याद दिलाता है।
Habib Jalib 'Dastoor' Lyrics in Hindi (हबीब जालिब - दस्तूर)
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
Dastoor - Hinglish Lyrics
Deep jis ka mahallaat hi mein jale
Chand logon ki khushiyon ko le kar chale
Wo jo saaye mein har maslahat ke pale
Aise dastoor ko subh-e-be-noor ko
Main nahin manta main nahin jaanta
'दस्तूर' की गहरी साहित्यिक व्याख्या (In-depth Analysis)
1. वर्ग संघर्ष और 'महल्लात' का रूपक
जालिब नज़्म की शुरुआत 'दीप' और 'महल्लात' (महल) के विरोधभास से करते हैं। सत्ता जब जनहित के बजाय 'मस्लहत' (Opportunism) की बुनियाद पर समझौता करती है, तो वह आम आदमी के हिस्से की रोशनी छीन लेती है। जालिब इसे नागार्जुन की 'खिचड़ी विप्लव' की तरह देखते हैं, जहाँ सत्ता और जनता के बीच की खाई गहरी हो जाती है।
2. मंसूर का दर्शन और निर्भीकता
"मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से" - यहाँ जालिब सूफी संत मंसूर अल-हल्लाज का आह्वान करते हैं, जिन्हें 'अन-अल-हक़' (मैं ही सत्य हूँ) कहने के कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था। जालिब स्पष्ट करते हैं कि वे सत्ता के 'अग़्यार' (दुश्मनों) से नहीं डरते। यह निर्भीकता हमें रघुवीर सहाय की कविता 'रामदास' के उस वातावरण के विपरीत खड़ा करती है जहाँ डर का साम्राज्य है; जालिब यहाँ उस डर को ही खारिज कर देते हैं।
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| Defiance: Habib Jalib during a public protest. |
3. "ज़ेहन की लूट" - प्रोपेगेंडा का पर्दाफ़ाश
सत्ता जब 'फूल खिलने' के झूठे वादे करती है, तो जालिब उसे "ज़ेहन की लूट" (Intellectual Theft) करार देते हैं। यह हिस्सा राजनैतिक प्रोपेगेंडा की उन परतों को उखाड़ता है जो अमर उजाला के विश्लेषण के अनुसार जालिब को एक 'पीपुल्स पोएट' के रूप में स्थापित करती हैं।
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निष्कर्ष
हबीब जालिब की "मैं नहीं मानता" आज भी हर उस जगह गूँजती है जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे लगाए जाते हैं। यह नज़्म हमें सिखाती है कि सच बोलना केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक नैतिक उत्तरदायित्व है।
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| Habib Jalib: The voice of truth and resistance. |
स्रोत: Rekhta Archive