Ye Vriksh Me Uge Parinde - ये वृक्षों में उगे परिन्दे
Nature Kavita In Hindi
Hindi Kavita Nature
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये,
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये ।
झाँक रहे हैं नभ में किसको,
फिर अनगिनती पाँखों से |
जो न झाँक पाया संसृति-पथ,
कोटि-कोटि निज आँखों से ।
श्याम धरा, हरि पीली डाली,
हरी मूठ कस डाली |
कली-कली बेचैन हो गई,
झाँक उठी क्या लाली !
आकर्षण को छोड़ उठे ये,
नभ के हरे प्रवासी |
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी,
हवा हो गई दासी ।
बाँध दिये ये मुकुट कली मिस
कहा-धन्य हो यात्री!
धन्य डाल नत गात्री।
पर होनी सुनती थी चुप-चुप
विधि-विधान का लेखा!
उसका ही था फूल
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।
धूल-धूल हो गया फूल,
गिर गये इरादे भू पर |
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये,
गिर आये प्यादे भू पर ।
हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध |
हरी-हरी ऊँचे उठने की,
बढ़ती रहे सुगन्ध !
पर ज़मीन पर पैर रहेंगे,
प्राप्ति रहेगी भू पर |
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि,
मूर्त्ति रहेगी भू पर ।।