हिंदी कविता के आकाश में कुछ नक्षत्र ऐसे होते हैं जिनकी रोशनी आँखों को सुकून नहीं देती, बल्कि आत्मा को बेचैन कर देती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की कालजयी रचना "चांद का मुँह टेढ़ा है" (Chand Ka Muh Tedha Hai) एक ऐसा ही दहकता हुआ दस्तावेज़ है। जहाँ अन्य कवि चाँद को सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक मानते हैं, वहीं मुक्तिबोध को उस चाँद में एक क्रूर विद्रूपता नज़र आती है।
यह कविता केवल शब्दों का जाल नहीं है, बल्कि एक भयानक 'फैंटेसी' है—एक ऐसा दुःस्वप्न जो आधुनिक शहर की काली सच्चाईयों को उजागर करता है। जिस तरह नागार्जुन ने जंगल और प्रकृति के माध्यम से विद्रोह की आवाज़ उठाई, उसी तरह मुक्तिबोध ने शहर की अंधेरी गलियों, कारखानों और वीरान पुलों के नीचे छिपे भय को शब्द दिए हैं।
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| Chand Ka Muh Tedha Hai - Full Poem and Summary |
इस कविता को पढ़ते समय आपको महसूस होगा कि आप शब्दों के ज़रिए एक तिलिस्मी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। यह यात्रा आसान नहीं है, लेकिन साहित्य प्रेमी जानते हैं कि जीवन की असली प्रेरणा अक्सर संघर्षों के अंधेरे से ही मिलती है। आइये, मुक्तिबोध के इस जटिल और अद्भुत संसार में प्रवेश करें।
चांद का मुँह टेढ़ा है
- गजानन माधव मुक्तिबोध -
आधी रात--अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
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| Chand Ka Muh Tedha Hai (Muktibodh) |
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
(जैसे गोपालदास नीरज ने कारवाँ गुज़र जाने की बात कही थी, यहाँ मुक्तिबोध उसी गुज़रते वक़्त के भयानक चेहरे को दिखा रहे हैं।)
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।
वीडियो: कविता का पाठ
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये
बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फैल
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह--
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैंरों की कड़ी पीठ
भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुश्किल होगी दूर कब...
सारांश और व्याख्या: चांद का मुँह टेढ़ा क्यों है?
गजानन माधव मुक्तिबोध की यह कविता केवल एक कोरी कल्पना नहीं है। द इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार, मुक्तिबोध नेहरू युग के मोहभंग और भारतीय राजनीति के गिरते स्तर को देख रहे थे। यहाँ 'चांद' वह शीतल उपग्रह नहीं है जिसे प्रेमी निहारते हैं। यहाँ चांद 'सत्ता' (Establishment) का प्रतीक है जो टेढ़ा है, क्रूर है और जासूस की तरह शहर के हर कोने में झाँक रहा है।
कविता में बार-बार आने वाले बिम्ब—जैसे अंधियाला ताल, बरगद का पेड़, और गांधी की मूर्ति पर बैठा घुग्घू—समाज की सड़ांध को दर्शाते हैं। यह कविता हमें याद दिलाती है कि जब तक हम स्मृतियों के दीपक जलाकर सच्चाई को नहीं देखेंगे, तब तक अंधेरा कायम रहेगा।
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मुक्तिबोध का यह 'फैंटेसी' शिल्प हिंदी साहित्य में अद्वितीय है। जहाँ अन्य हिंदी कविताएँ भावनाओं के सागर में तैरती हैं, मुक्तिबोध की कविताएँ बुद्धि और विवेक के हथौड़े से चोट करती हैं। यह कविता पाठकों से सवाल करती है—क्या हम सिर्फ दर्शक बने रहेंगे, या उस 'सुबह' की तलाश करेंगे जिसका ज़िक्र कविता के अंत में है?
महत्वपूर्ण प्रतीक और बिम्ब (Symbolism)
- चाँद: क्रूर सत्ता, जासूसी और षड्यंत्र का प्रतीक।
- अंधेरा: अज्ञानता और निराशा का वातावरण।
- घुग्घू: विवेकहीनता और अंधभक्ति।
- बरगद: पुरानी और रूढ़िवादी परंपराएं जो समाज को जकड़े हुए हैं।
यदि आप साहित्य की और गहराइयों में जाना चाहते हैं, तो खुमार बाराबंकवी की ग़ज़लें या मैथिली कविताओं का आनंद भी ले सकते हैं, जो भावनाओं के अलग रंग प्रस्तुत करती हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
Q1. 'चांद का मुँह टेढ़ा है' कविता का क्या अर्थ है?
इस कविता का अर्थ सत्ता के दमनकारी चरित्र और पूंजीवादी समाज में आम आदमी की बेबसी को उजागर करना है। यह उनकी लंबी कविताओं में से एक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है, जिसमें आधुनिक समय का अंधकार, सत्ता और व्यवस्था का आतंक दिखता है।
Q2. इस कविता में 'चांद' किसका प्रतीक है?
इस कविता में चांद सुंदरता का नहीं, बल्कि सत्ता की विद्रूपता, षड्यंत्र और जासूसी का प्रतीक है। यह 'Establishment' का वह चेहरा है जो आम आदमी के जीवन पर लगातार क्रूर नज़र रखता है। यहाँ चाँदनी शीतलता नहीं, बल्कि भय और सन्नाटा फैलाती है।
Q3. चांद का मुंह टेढ़ा है कविता का मूल भाव क्या है?
यह कविता आधुनिक सभ्यता की विसंगतियों, पूंजीवादी शोषण और मध्यमवर्गीय जीवन के संघर्ष को 'फैंटेसी' (Fantasy) शिल्प के माध्यम से दर्शाती है। इसमें कवि ने अंधेरे, बरगद और घुग्घू जैसे बिम्बों के जरिए समाज में व्याप्त डर और अनिश्चितता का चित्रण किया है।
Q4. चांद का मुंह टेढ़ा है का प्रकाशन कब हुआ?
यह कविता संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 1964 में मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद प्रकाशित किया गया था। इसमें उनकी प्रतिनिधि कविताएं जैसे 'अंधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' भी शामिल हैं, जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
अन्य पठनीय सामग्री: मातृ छाया (नई पुस्तक 2025) | विद्यार्थियों पर कविता
