दिल और दिमाग की अधूरी अदालत: ज़िंदगी के फैसले | Heart vs Mind Hindi Poetry
दिल और दिमाग की अधूरी अदालत: ज़िंदगी की सबसे बड़ी कशमकश
क्या आपने कभी खुद को एक ऐसे चौराहे पर पाया है, जहाँ एक रास्ता दिल की भावनाओं की ओर जाता है और दूसरा दिमाग के तर्कों की ओर? यह एक ऐसी कशमकश है, एक ऐसी अधूरी अदालत है जो हर रोज़ हमारे भीतर लगती है। इसमें जज भी हम होते हैं और मुजरिम भी हम। ज़िंदगी के सबसे बड़े फैसले अक्सर इसी अदालत में लिए जाते हैं, जहाँ दिल और दिमाग अपने-अपने पक्ष रखते हैं।
आज साहित्यशाला पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं बलिया, उत्तरप्रदेश के लेखक अभिषेक मिश्रा की एक बेहद मार्मिक और विचारोत्तेजक कविता, जो इस शाश्वत संघर्ष को खूबसूरती से बयां करती है।
कविता: दिल और दिमाग की अधूरी अदालत
हर रोज़ मेरे भीतर
एक अदालत लगती है।
जज भी मैं ही हूँ,
मुजरिम भी मैं ही,
और गवाह भी—
मेरा दिल और मेरा दिमाग़।
दिल खड़ा होकर कहता है—
“हुज़ूर, इंसान सिर्फ़ साँस लेने से ज़िंदा नहीं होता,
ज़िंदा होने का सबूत है
उसकी धड़कनों की गवाही।
प्यार करना, हँसना, रोना—
यही असली ज़िंदगी है।
अगर दिल न हो,
तो इंसान चलता-फिरता शव बन जाएगा।”
दिमाग़ कुर्सी खींचकर मुस्कुराता है—
“हुज़ूर, ये मोहब्बत, ये ख्वाब, ये जज़्बात—
किताबों में अच्छे लगते हैं।
ज़िंदगी हकीकत है,
यहाँ फैसले दिमाग़ से ही चलते हैं।
दिल की सुनकर चलोगे,
तो मंज़िल से पहले बिखर जाओगे।
दुनिया कब्रिस्तान है उन लोगों की,
जिन्होंने सोचने से पहले महसूस किया।”
दिल ने पलटकर कहा—
“अगर हर बात तौलने लगो,
तो ज़िंदगी तराज़ू रह जाएगी।
कभी कुछ पागलपन भी ज़रूरी है,
कभी बिना सोचे मुस्कुरा लेना भी।
तेरी गिनती में सुकून नहीं मिलता,
मेरे बहकाव में जीने का मज़ा है।”
दिमाग़ हँस पड़ा—
“पागलपन?
तेरे पागलपन ने कितनों को रुलाया है!
कभी अधूरे इश्क़ में,
कभी अधूरे सपनों में।
अगर मैं न होता,
तो तू हर रोज़ डूब जाता।
मैं ही तो हूँ जो तेरे सपनों को
हक़ीक़त की ज़मीन पर खड़ा करता हूँ।”
दिल आहत हो गया,
आँखें नम कर बोला—
“और अगर मैं न होता,
तो तेरी जीत भी खाली होती।
तेरी सोच बेजान,
तेरे सपने बिन रंग के।
तेरे रास्ते सूने,
तेरी मंज़िलें वीरान।
मैं ही तो हूँ जो इंसान को
पत्थर से दिलवाला बनाता हूँ।”
कुछ पल खामोशी रही…
मानो अदालत में घड़ी की सुइयाँ भी रुक गई हों।
फिर दोनों मेरी ओर देखने लगे।
मैं उलझन में था—
क्योंकि सच यही है—
जो दिल से चाहता हूँ, वो पूरा नहीं होता,
जो दिमाग़ से करता हूँ, उसमें दिल नहीं लगता।
उस रात अदालत भंग हो गई,
कोई फ़ैसला न निकला।
पर एक समझौता लिख लिया गया—
“रास्ता दिमाग़ दिखाएगा,
मंज़िल दिल तय करेगा।”
और मैं…
अब भी उस अधूरी अदालत का
सिर्फ़ गवाह बना बैठा हूँ।
लेखक- अभिषेक मिश्रा (बलिया, उत्तरप्रदेश)
कविता का विश्लेषण और जीवन का संतुलन
यह कविता केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि जीवन के उस सबसे बड़े सत्य का आईना है जहाँ तर्क और भावनाएं टकराती हैं। दिल हमें उड़ने के लिए पंख देता है, तो दिमाग हमें ज़मीन पर चलना सिखाता है। एक के बिना उड़ान अधूरी है, तो दूसरे के बिना मंज़िल खोखली।
कविता का अंतिम निष्कर्ष, "रास्ता दिमाग़ दिखाएगा, मंज़िल दिल तय करेगा," जीवन जीने का सबसे खूबसूरत फलसफा है। सफलता के लिए दिमाग की रणनीति ज़रूरी है, लेकिन उस सफलता में खुशी और सुकून तभी मिलता है जब मंज़िल दिल की चुनी हुई हो।
आपको यह कविता कैसी लगी? क्या आप भी कभी अपने दिल और दिमाग की इस अदालत में उलझे हैं? नीचे कमेंट सेक्शन में अपने विचार ज़रूर साझा करें।