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Paro Ko Khol Zamana Udaan Dekhta Hai - परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है | शकील आज़मी

Paro Ko Khol Zamana Udaan Dekhta Hai - परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है

शकील आज़मी की ग़ज़ल

परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है 

ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है 

Paro Ko Khol Zamana Udaan Dekhta Hai - परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है  शकील आज़मी

मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफ़ाज़त कर 

सँभल के चल तुझे सारा जहान देखता है 


कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो 

जो इश्क़ करता है कब ख़ानदान देखता है 


घटाएँ उठती हैं बरसात होने लगती है 

जब आँख भर के फ़लक को किसान देखता है 


यही वो शहर जो मेरे लबों से बोलता था 

यही वो शहर जो मेरी ज़बान देखता है 


मैं जब मकान के बाहर क़दम निकालता हूँ 

अजब निगाह से मुझ को मकान देखता है

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शकील आज़मी

Paro Ko Khol Zamana Udaan Dekhta Hai - परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है | शकील आज़मी

paroñ ko khol zamāna uḌaan dekhtā hai 

zamīñ pe baiTh ke kyā āsmān dekhtā hai 


milā hai husn to is husn kī hifāzat kar 

sambhal ke chal tujhe saarā jahān dekhtā hai 

Paro Ko Khol Zamana Udaan Dekhta Hai - परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है  शकील आज़मी

kanīz ho koī yā koī shāhzādī ho 

jo ishq kartā hai kab ḳhāndān dekhtā hai 


ghaTā.eñ uThtī haiñ barsāt hone lagtī hai 

jab aañkh bhar ke falak ko kisān dekhtā hai 


yahī vo shahr jo mere laboñ se boltā thā 

yahī vo shahr jo merī zabān dekhtā hai 


maiñ jab makān ke bāhar qadam nikāltā huuñ 

ajab nigāh se mujh ko makān dekhtā hai 

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