ओ मेरी जिंदगी - O Meri Zindagi Poem By Dushyant Kumar
दुष्यंत कुमार हिंदी कविता
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ओ मेरी जिंदगी - O Meri Zindagi Poem By Dushyant Kumar |
मैं जो अनवरत
तुम्हारा हाथ पकड़े
स्त्री-परायण पति सा
इस वन की पगडंडियों पर
भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ,
सो इसलिए नहीं
कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है,
या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ,
बल्कि इसलिए कि मैं पुरुष हूँ
और तुम चाहे परंपरा से बँधी मेरी पत्नी न हो,
पर एक ऐसी शर्त ज़रूर है,
जो मुझे संस्कारों से प्राप्त हुई,
कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।
ओ मेरी जिंदगी - O Meri Zindagi Poem By Dushyant Kumar दुष्यंत कुमार
पहले
जब पहला सपना टूटा था,
तब मेरे हाथ की पकड़
तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी।
सच,
वही तुम्हारे बिलगाव का मुकाम हो सकता था।
पर उसके बाद तो
कुछ टूटने की इतनी आवाज़ें हुईं
कि आज तक उन्हें सुनता रहता हूँ।
आवाज़ें और कुछ नहीं सुनने देतीं!
तुम जो हर घड़ी की साथिन हो,
तुमझे झूठ क्या बोलूँ?
खुद तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी
मुझे अरसा गुजर गया!
लेकिन तुम्हारे हाथों को हाथों में लिए
मैं उस समय तक चलूँगा
जब तक उँगलियाँ गलकर न गिर जाएँ।
तुम फिर भी अपनी हो,
वह फिर भी ग़ैर थी जो छूट गई;
और उसके सामने कभी मैं
यह प्रगट न होने दूँगा
कि मेरी उँगलियाँ दग़ाबाज़ हैं,
या मेरी पकड़ कमज़ोर है,
मैं चाहे कलम पकड़ूँ या कलाई।
ओ मेरी जिंदगी - O Meri Zindagi Poem By Dushyant Kumar दुष्यंत कुमार
मगर ओ मेरी जिंदगी!
मुझे यह तो बता
मेरे साथ चलते हुए
क्या तुझे कभी ये अहसास होता है
कि तू अकेली नहीं?
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