'प्रकृति, क्या तुम क्रूर हो जाओगी?' - हर्ष वर्धन सिंह का अपनी धरती से संवाद | Prakriti, Kya Tum Kroor Ho Jaogi - Harsh Vardhan Singh
'प्रकृति, क्या तुम क्रूर हो जाओगी?' - हर्ष वर्धन सिंह का अपनी धरती से संवाद
क्या आपने कभी सोचा है कि अगर आज की पीढ़ी को प्रकृति को एक पत्र लिखना पड़े, तो उसमें क्या लिखा होगा? शायद एक धन्यवाद, या फिर कुछ शिकायतें? पर आज हम आपके लिए जो पत्र लेकर आए हैं, वह इन सबसे परे है। लेखक हर्ष वर्धन सिंह द्वारा लिखा गया यह पत्र एक क्षमा-याचना है, एक अपराध-बोध है, और अपनी ही विफलताओं पर एक गहरा आत्म-चिंतन है।
सत्य निकेतन के पते से लिखा गया यह पत्र केवल शब्द नहीं, बल्कि उस हर इंसान की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि हमने अपनी सबसे कीमती धरोहर, अपनी प्रकृति को निराश किया है।
प्रकृति के नाम पत्र
2179/16 सत्य निकेतन
प्रिया स्नेहभाजना प्रकृति, मधुर स्मृतियां एवं शुभ आशीष
कुशलक्षेमोपरांत वृत्तांत यह है कि बहुत साहस संग्रह करने के उपरांत यह पत्र लिखने में संवृत्त हुआ हूं। इसके कई कारण हैं एवं अन्य कहे व सुने जा सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। कदाचित, एक कारण यह है कि जब एक आरंभिक के स्वैर आचरण के कारण एक मनोरम उद्यान का ध्वंस हो जाए, तो वह किस मुख से उस उद्यान से क्षमायाचना करे। आरंभिक के मन में यह संशय भी हो सकता है कि वह विगत पर शोक करे अथवा आशान्वित भविष्य के लिए अवशिष्ट को संभाले। परंतु, मेरा अपने आप से कुछ और ही मतभेद है, अगर ऐसा कहा जाना उचित है तो.... कि हमें तुम्हें एक धरोहर के रूप में दिया गया था एवं हमारा कर्तव्य था कि तुम्हारी रक्षा उत्तराधिकारियों के उस अधिकार के रूप में की जाए, जिससे उन्हें अधिग्रहित करना है, परंतु हम न तो अपने पितरों का सम्मान कर पाए, न ही अपने पुत्रों के अधिकारों का संरक्षण करने में सफल रहे।
क्या हम एक असफल पीढ़ी हैं जो नियति एवं समयचक्र की परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहे? इसका उत्तर या तो तुम देने में सक्षम हो, या फिर, संसृति ही जितना पुराना समय। पर मैं, हमारी पीढ़ी का परिगणन अपने आने वाले बच्चों पर छोड़ता हूं।
एक चीज़ यह भी है कि मैं एक पुरुष हूं एवं तुम एक स्त्री हो। इससे हमारा संबंध रक्षक एवं रक्षणीय का हो जाता है। और लोकोक्ति है कि रक्षित ही रक्षा करता है...तो क्या, तुम भी हमारी तरफ से दृष्टि फेर कर क्रूर हो जाओगी? क्या तुम भी हमारे पूर्वजों के लिए गए तुम पर उपकार भूल जाओगी? परंतु, उन्हें उपकार कहना न्याय के मापदंड पर कितना उचित है, यह मैं नहीं जानता। पर अगर तुमने भी हमारी रक्षा नहीं की तो हम में और तुम में क्या अंतर रह जायेगा? शायद तुम यही अंतर मिटाना चाहती हो ताकि प्रकृति व पुरुष में कोई अंतर न रहे। तुम पर मार्क्स का प्रभाव उद्रिक्त प्रतीत होता है और हो भी क्यों न, तुम्हारा दोहन करने वाले पूंजीवादी हैं। परंतु उनका क्या जो तुम्हारे ही समान इस व्यवस्था के ग्रास हैं, जो तुम्हारे ही समान शोषित हैं परंतु तुम जैसे प्रतिकार करने में सक्षम नहीं हैं ?
क्या उनके प्रति किए गए अन्याय कतिपय भी गण्य नहीं ? इन प्रश्नों का शास्त्रार्थ मैं तुम पर छोड़ देता हूं। पर हां, कोई भी वक्तव्य अथवा कोई भी दलील हमें हमारे पापों से दोषमुक्त नहीं करती। पर हमें अपराधी मानकर दंड देना है अथवा मूर्ख मानकर छोड़ देना है, यह तुम्हारा स्वतंत्र एवं स्वायत्त निर्णय है, यद्यपि दोनों में ही एक मनुष्य होने के दंभ का ह्रास है....पर सुना है, तुम्हें गर्व का आहार अतीव प्रिय है !!
प्रत्युत्तर की अपेक्षा न रखते हुए पर प्रत्युत्तर के लिए तैयार,
तुम्हारा अपराधी,
— हर्ष वर्धन सिंह (+91 74087 20232)
एक पत्र, अनेक सवाल
यह पत्र जहाँ समाप्त होता है, वहीं से असली संवाद शुरू होता है। लेखक ने बड़ी गहराई से कुछ प्रश्न उठाए हैं:
विरासत की विफलता: क्या हम वाकई एक ऐसी पीढ़ी हैं, जिसे प्रकृति एक धरोहर के रूप में मिली, लेकिन हम उसे अगली पीढ़ी को सौंपने में असफल रहे?
पुरुष और प्रकृति का संबंध: लेखक ने पुरुष को 'रक्षक' और प्रकृति को 'रक्षणीय' कहा है। क्या आज यह संबंध उलट गया है? क्या अब प्रकृति को ही मानवता की रक्षा करनी होगी?
प्रकृति का न्याय: पत्र का अंत इस सवाल पर होता है कि क्या प्रकृति अब पुरुष और अपने बीच का अंतर मिटाकर एक बराबरी का न्याय करना चाहती है, जैसा कि मार्क्सवादी विचारधारा में होता है।
यह पत्र केवल पर्यावरण की चिंता नहीं, बल्कि मानवता के अस्तित्व, उसके कर्तव्य और भविष्य पर एक दार्शनिक टिप्पणी है।
इस पत्र पर आपके क्या विचार हैं? क्या हम सच में एक "असफल पीढ़ी" हैं? अपनी राय नीचे कमेंट्स में ज़रूर बताएं।