दयावती का कुनबा - रघुवीर सहाय | सप्रसंग व्याख्या एवं आलोचनात्मक विश्लेषण
हिंदी साहित्य (BA/MA/UGC NET) के विद्यार्थियों के लिए गहन समीक्षा।
नई कविता और साठोत्तरी दौर में जब अधिकांश कवि मोहभंग का रोना रो रहे थे, तब रघुवीर सहाय व्यवस्था की नब्ज़ पर उंगली रखकर उसे जोर से दबा रहे थे। उनकी कविता 'दयावती का कुनबा' (Dayavati Ka Kunba) महज़ एक स्त्री की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस पूरे भारतीय निम्न-मध्यमवर्ग का 'एक्स-रे' है जो विकास के नारों के बीच घुट-घुट कर मर रहा है।
जिस प्रकार भवानी प्रसाद मिश्र की 'बुनी हुई रस्सी' में जीवन के तानों-बानों की कसमसाहट है, वैसे ही रघुवीर सहाय यहाँ दयावती के जीवन की उधड़ी हुई सिलाई को हमारे सामने रखते हैं। इस लेख में हम इस कविता का समाजशास्त्रीय और साहित्यिक विश्लेषण करेंगे।
कवि और संवेदना
रघुवीर सहाय 'दूसरा सप्तक' (1951) के कवि हैं। उनकी खासियत है उनकी 'सपाटेबयानी'। वे कविता को खबर की तरह पेश करते हैं, लेकिन वह खबर दिल में एक फाँस की तरह चुभ जाती है। वे लोकतंत्र के उन कोनों में झाँकते हैं जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती।
दयावती का कुनबा - मूल पाठ
गहन सप्रसंग व्याख्या (Detailed Analysis)
1. संदर्भ एवं प्रसंग
यह कविता रघुवीर सहाय के संग्रह से ली गई है। यहाँ कवि एक ऐसे परिवार का खाका खींचते हैं जो पितृसत्ता (Patriarchy) और पूँजीवादी व्यवस्था की चक्की में पिसकर नष्ट हो गया है। केदारनाथ सिंह जब 'प्रभु मैं पानी हूँ' कहते हैं तो उसमें एक दार्शनिक विनम्रता है, लेकिन रघुवीर सहाय की दयावती के पास विनम्रता नहीं, केवल विवशता है।
2. आलोचनात्मक व्याख्या
पुरुष-विहीनता और पिता का 'बोझ'
कविता का आरंभ एक भयावह शांति से होता है— "अब इस घर में पुरुष कोई नहीं रह गया।" यह पंक्ति परिवार के पूर्ण विनाश की सूचना देती है। कवि फ्लैशबैक में जाते हैं। दयावती के पिता ने 'कन्यादान' को केवल 'बोझ उतारना' समझा।
यहाँ 'बोझ' शब्द भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को नंगा करता है। कवि कहते हैं कि दुनिया में जितने युद्ध (मोर्चे) लड़े जाते हैं, उससे कहीं ज्यादा भीषण युद्ध दयावती को अपनी रसोई और घर के आंगन में लड़ने पड़े। यह हर्ष नाथ झा की कविता 'संयुक्ताक्षर' की तरह ही भाषाई और सामाजिक संघर्ष का प्रतीक है।
दमन और प्रजनन का चक्र
दयावती ने ससुराल में अपनी 'इच्छाएँ दाबीं' और 'स्वभाव बदला'। यहाँ व्यक्तित्व के हनन का चित्रण है। उसने चार बच्चे पैदा किए, प्रेम के लिए नहीं, बल्कि 'सगुन' (कुलदीपक) दिखाने के लिए। स्त्री शरीर का मशीन की तरह इस्तेमाल करना—यही मध्यवर्गीय नैतिकता का पाखंड है।
व्यवस्था द्वारा हत्या (Medical Murder)
सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है बड़े बेटे की मृत्यु। वह पेट का मरीज था, लेकिन इलाज से नहीं, "महँगी दवाओं के विष" से मरा।
रघुवीर सहाय यहाँ साफ़ कहते हैं कि गरीबी में 'प्राकृतिक इलाज' (अच्छा भोजन, आराम) संभव नहीं है। आधुनिक चिकित्सा तंत्र गरीब को ठीक नहीं करता, उसे कर्ज और ज़हरीली दवाओं के चक्र में फँसाकर मार देता है। बेटा अपनी कम तनख्वाह की शर्म को चाय और सिगरेट के धुएँ में उड़ाता था—यह महानगरीय कुंठा का सटीक बिंब है।
शोषण के विविध रूप
दूसरा बेटा 'कामचोरों की एवज़ी' (Proxy work) करता हुआ मरा। वह ऑफिस के 'बड़े बाबू' की धौंस सहता रहा। यह दफ्तरशाही (Bureaucracy) का अमानवीय चेहरा है। तीसरा बेटा बेरोजगारी और गृह-क्लेश से टूटकर आत्महत्या कर लेता है।
इस तरह, दयावती के घर के पुरुष किसी युद्ध में नहीं मारे गए, उन्हें समाज की सड़ी-गली व्यवस्था ने निगल लिया। यह ठीक वैसा ही विद्रोह है जैसा रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कविताओं में दिखता है, बस यहाँ स्वर धीमा और हताश है।
अंतहीन त्रासदी
कविता का अंत वलयाकार (Circular) है। दयावती मर जाती है, दो विधवा बहुओं और पोतियों को छोड़कर। अंतिम पंक्तियाँ सिहरन पैदा करती हैं— "पोतियों की ख़बर हमको पता नहीं... वे भी बोझ कम करने के लिए विदा होती हैं।"
इतिहास ने खुद को दोहराया है। जो दयावती के साथ हुआ, वही अब पोतियों के साथ होगा। गरीबी और पितृसत्ता का यह चक्र अटूट है।
काव्य शिल्प एवं भाषा
- नाम में विडंबना (Irony): 'दयावती' का अर्थ है दया की देवी, लेकिन जीवन भर उस पर किसी ने दया नहीं दिखाई।
- भाषा: कवि ने अत्यंत साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। इसे 'गद्यात्मक कविता' कहते हैं। इसमें अलंकारों का बोझ नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे लोकगीतों या लिरिकल रचनाओं में सीधी बात कही जाती है।
- बिंब (Imagery): 'रसोई का धुआँ', 'महँगी दवाओं का विष', 'घिसटती दयावती'—ये दृश्य पाठक के मन में फिल्म की रील की तरह चलते हैं।
- शैली: यह एक 'नैरेटिव पोएट्री' (कथात्मक कविता) है जो कहानी सुनाते हुए समाजशास्त्र पढ़ा जाती है।
भाव-साम्य (Connect with other emotions)
दयावती के अकेलेपन और संघर्ष को महसूस करने के लिए आप इस ग़ज़ल के भावों को भी देख सकते हैं: तन्हाई में फरियाद तो कर सकता हूँ। जहाँ शायर अपनी पीड़ा व्यक्त कर पा रहा है, वहीं दयावती मूक रहकर सब सहती चली गई।
परीक्षा उपयोगी प्रश्न (FAQs)
- आर्थिक अभाव व नशा: पहला बेटा गरीबी की शर्म और नशे (चाय-सिगरेट) व गलत दवाओं से मरा।
- कार्यस्थल का शोषण: दूसरा बेटा दफ्तर की धौंस और बीमारी से मरा।
- मानसिक हताशा: तीसरा बेटा बेरोजगारी और कलह के कारण आत्महत्या कर लेता है।