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Ye Baar-E-Gham Bhi Uthaya Nahi - ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से | Azhar Iqbal Ghazal

Ye Baar-E-Gham Bhi Uthaya Nahi - ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से

Azhar Iqbal Ghazal

ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से

कि उस ने हम को रुलाया नहीं बहुत दिन से

Ye Baar-E-Gham Bhi Uthaya Nahi - ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से  Azhar Iqbal Ghazal

चलो कि ख़ाक उड़ाएँ चलो शराब पिएँ

किसी का हिज्र मनाया नहीं बहुत दिन से


ये कैफ़ियत है मेरी जान अब तुझे खो कर

कि हम ने ख़ुद को भी पाया नहीं बहुत दिन से


हर एक शख़्स यहाँ महव-ए-ख़्वाब लगता है

किसी ने हम को जगाया नहीं बहुत दिन से


ये ख़ौफ़ है कि रगों में लहू न जम जाए

तुम्हें गले से लगाया नहीं बहुत दिन से 

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अज़हर इक़बाल

ग़ज़लें


ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से - ye bār-e-ġham bhī uThāyā nahīñ


ye bār-e-ġham bhī uThāyā nahīñ bahut din se

ki us ne ham ko rulāyā nahīñ bahut din se


chalo ki ḳhaak uḌā.eñ chalo sharāb piyeñ

kisī kā hijr manāyā nahīñ bahut din se

ye kaifiyat hai merī jaan ab tujhe kho kar

ki ham ne ḳhud ko bhī paayā nahīñ bahut din se


har ek shaḳhs yahāñ mahv-e-ḳhvāb lagtā hai

kisī ne ham ko jagāyā nahīñ bahut din se


ye ḳhauf hai ki ragoñ meñ lahū na jam jaa.e

tumheñ gale se lagāyā nahīñ bahut din se


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