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काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए - Kafir Hun Sar-Phira Hun Mujhe Mar Dijiye

काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए - Kafir Hun Sar-Phira Hun Mujhe Mar Dijiye

काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए - Kafir Hun Sar-Phira Hun Mujhe Mar Dijiye


काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए

मैं सोचने लगा हूँ मुझे मार दीजिए


है एहतिराम-ए-हज़रत-ए-इंसान मेरा दीन

बे-दीन हो गया हूँ मुझे मार दीजिए

काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए - Kafir Hun Sar-Phira Hun Mujhe Mar Dijiye

मैं पूछने लगा हूँ सबब अपने क़त्ल का

मैं हद से बढ़ गया हूँ मुझे मार दीजिए


करता हूँ अहल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से सवाल

गुस्ताख़ हो गया हूँ मुझे मार दीजिए


ख़ुशबू से मेरा रब्त है जुगनू से मेरा काम

कितना भटक गया हूँ मुझे मार दीजिए


मा'लूम है मुझे कि बड़ा जुर्म है ये काम

मैं ख़्वाब देखता हूँ मुझे मार दीजिए


ज़ाहिद ये ज़ोहद-ओ-तक़्वा-ओ-परहेज़ की रविश

मैं ख़ूब जानता हूँ मुझे मार दीजिए


बे-दीन हूँ मगर हैं ज़माने में जितने दीन

मैं सब को मानता हूँ मुझे मार दीजिए


फिर उस के बा'द शहर में नाचेगा हू का शोर

मैं आख़िरी सदा हूँ मुझे मार दीजिए


मैं ठीक सोचता हूँ कोई हद मेरे लिए

मैं साफ़ देखता हूँ मुझे मार दीजिए


ये ज़ुल्म है कि ज़ुल्म को कहता हूँ साफ़ ज़ुल्म

क्या ज़ुल्म कर रहा हूँ मुझे मार दीजिए


ज़िंदा रहा तो करता रहूँगा हमेशा प्यार

मैं साफ़ कह रहा हूँ मुझे मार दीजिए


जो ज़ख़्म बाँटते हैं उन्हें ज़ीस्त पे है हक़

मैं फूल बाँटता हूँ मुझे मार दीजिए


बारूद का नहीं मिरा मस्लक दरूद है

मैं ख़ैर माँगता हूँ मुझे मार दीजिए

-

अहमद फ़रहाद

मैं सोचने लगा हूँ मुझे मार दीजिए

Kafir Hun Sar-Phira Hun Mujhe Mar Dijiye

kāfir huuñ sar-phirā huuñ mujhe maar dījiye
maiñ sochne lagā huuñ mujhe maar dījiye

hai ehtirām-e-hazrat-e-insān merā diin
be-dīn ho gayā huuñ mujhe maar dījiye

maiñ pūchhne lagā huuñ sabab apne qatl kā
maiñ had se baḌh gayā huuñ mujhe maar dījiye

kartā huuñ ahl-e-jubba-o-dastār se savāl
gustāḳh ho gayā huuñ mujhe maar dījiye

मैं सोचने लगा हूँ मुझे मार दीजिए

ḳhushbū se merā rabt hai jugnū se merā kaam
kitnā bhaTak gayā huuñ mujhe maar dījiye

ma.alūm hai mujhe ki baḌā jurm hai ye kaam
maiñ ḳhvāb dekhtā huuñ mujhe maar dījiye

zāhid ye zohd-o-taqvā-o-parhez kī ravish
maiñ ḳhuub jāntā huuñ mujhe maar dījiye

be-dīn huuñ magar haiñ zamāne meñ jitne diin
maiñ sab ko māntā huuñ mujhe maar dījiye

phir us ke ba.ad shahr meñ nāchegā hū kā shor
maiñ āḳhirī sadā huuñ mujhe maar dījiye

maiñ Thiik sochtā huuñ koī had mere liye
maiñ saaf dekhtā huuñ mujhe maar dījiye

ye zulm hai ki zulm ko kahtā huuñ saaf zulm
kyā zulm kar rahā huuñ mujhe maar dījiye

zinda rahā to kartā rahūñgā hamesha pyaar
maiñ saaf kah rahā huuñ mujhe maar dījiye

jo zaḳhm bāñTte haiñ unheñ ziist pe hai haq
maiñ phuul bāñTtā huuñ mujhe maar dījiye

bārūd kā nahīñ mirā maslak darūd hai
maiñ ḳhair māñgtā huuñ mujhe maar dījiye
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