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इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए – ग़ज़ल का अर्थ | Khumar Barabankvi Ghazal Meaning

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए – ग़ज़ल का अर्थ | Khumar Barabankvi Ghazal Meaning

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए – ग़ज़ल का अर्थ | Khumar Barabankvi Ghazal Meaning

उर्दू शायरी की दुनिया एक ऐसी महफ़िल है जहाँ हर लफ़्ज़ एक एहसास है और हर शेर एक पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा उर्दू ग़ज़ल की इस महान परंपरा में, एक नाम जो ज़ेहन में रौशन होता है, वह है ख़ुमार बाराबंकवी। उनकी एक ग़ज़ल है जो वक़्त, इश्क़ और दर्द के पैमाने को ही बदल देती है।

भक्ति और इश्क़ का आध्यात्मिक जुड़ाव, ख़ुमार बाराबंकवी ग़ज़ल के गहरे अर्थ की व्याख्या

वह ग़ज़ल शुरू होती है इस पंक्ति से: "इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए".

यह महज़ एक शेर नहीं है; यह एक अनुभव है, एक दावा है, और एक गहरा राज़ है जो सिर्फ़ वही समझ सकता है जिसने इश्क़ की तपिश को महसूस किया हो। यह ग़ज़ल हमें बताती है कि ज़िंदगी को गिनने के दो तरीक़े हैं—एक जो दुनिया गिनती है (दिन, महीने, साल) और एक वो जो एक आशिक़ महसूस करता है (लम्हे, हिज्र, विसाल)।

आज, साहित्यशाला पर हम ख़ुमार बाराबंकवी की इस शाहकार (masterpiece) ग़ज़ल के हर पहलू को समझने की कोशिश करेंगे। हम इसके बोल (Lyrics), इसके गहरे अर्थ (Meaning) और इसकी शेर-दर-शेर तशरीह (Couplet Analysis) में गोता लगाएँगे।

🕊️ ख़ुमार बाराबंकवी — रूमानी एहसासों के शायर

ख़ुमार बाराबंकवी (1919–1999), जिनका असली नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था, उर्दू ग़ज़ल की उस परंपरा (रिवायत) के शायर थे जिनके यहाँ इश्क़, तन्हाई और ज़िंदगी के गहरे रंग बख़ूबी झलकते हैं। बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में जन्मे ख़ुमार ने अपनी शायरी में लखनवी तहज़ीब की नज़ाकत और नफ़ासत को ज़िंदा रखा।

उनका तख़ल्लुस 'ख़ुमार' (जिसका अर्थ है नशा या मादकता) उनकी शायरी पर पूरी तरह खरा उतरता है। उनकी शायरी में लफ़्ज़ों की नज़ाकत, लहजे की नरमी और दर्द की एक मीठी सी मिठास सब एक साथ महसूस होती है। वे उस इश्क़ के शायर हैं जो महबूब के हुस्न से ज़्यादा उसके होने के एहसास से है, जो पाने की ज़िद से ज़्यादा खोने के डर में पलता है।

वे उस सुनहरे दौर के शायर थे जब जिगर मुरादाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी और निदा फ़ाज़ली जैसे बड़े नाम उर्दू अदब के आसमान पर छाए हुए थे। आप रेख्ता पर उनके काम को और गहराई से पढ़ सकते हैं।


📜 ग़ज़ल – “इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए” (Full Text)

पेश है Khumar Barabankvi Ghazal के मुकम्मल अशआर:

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए 

दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए


भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम 

क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए


आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए 

अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए


जलते दियों में जलते घरों जैसी ज़ौ कहाँ 

सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए


वो जान ही गए कि हमें उन से प्यार है 

आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हम से पूछिए


हँसने का शौक़ हम को भी था आप की तरह 

हँसिए मगर हँसी का मज़ा हम से पूछिए


हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ 'ख़ुमार' 

तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए

— ख़ुमार बाराबंकवी


💫 ग़ज़ल का सारांश और भावार्थ

यह ग़ज़ल इंसानी एहसास, इश्क़ की गहराई और वक़्त के मायनों को बेहद नफ़ासत से पिरोती है। इस ग़ज़ल का केंद्रीय भाव (central theme) है अनुभव की प्रामाणिकता (authenticity of experience)। शायर बार-बार "हम से पूछिए" (मुझसे पूछो) कहकर यह ज़ोर देता है कि कुछ चीज़ें सिर्फ़ जीकर ही जानी जा सकती हैं, पढ़कर या सुनकर नहीं।

गंगा आरती में जलते हुए दीये, ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़ल के शेर 'सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए' का प्रतीक

“इक पल में इक सदी का मज़ा” — यह पंक्ति इश्क़ में समय के सापेक्ष (relative) हो जाने की बात करती है। जब आप महबूब के साथ होते हैं, तो एक पल एक पूरी सदी जितना भरपूर और गहरा हो सकता है। और जब आप इंतज़ार में होते हैं, तो वही एक पल एक सदी जितना लंबा हो जाता है।

यहाँ ख़ुमार ‘लम्हों की तवीलियत’ (stretching of moments) को प्रतीक बनाते हैं, जहाँ प्यार का दर्द और आनंद दोनों अनंत हो जाते हैं। यह ग़ज़ल बताती है कि ज़िंदगी की लंबाई नहीं, बल्कि उसकी गहराई मायने रखती है। "दो दिन की ज़िंदगी" (जो दुनिया को दिखती है) का असली मज़ा उन पलों में है जो सदियों जितने गहरे थे।

शेर-दर-शेर व्याख्या (Couplet Analysis)

आइए अब इस ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़ल के हर शेर के सागर में उतरते हैं।

1️⃣ पहला शेर (मतला)

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह ग़ज़ल का मतला (पहला शेर) है और यही इसकी बुनियाद है। शायर दुनिया से मुख़ातिब है।

  • पहली पंक्ति: इश्क़ में (ख़ासकर महबूब के साथ) बिताया हुआ एक لمحہ (पल) इतना गहरा, इतना तीव्र (intense) और इतना भरपूर होता है कि वह सौ साल (एक सदी) जीने के बराबर का सुकून या ‘मज़ा’ दे जाता है।

  • दूसरी पंक्ति: दुनिया ज़िंदगी को 50, 60 या 100 साल में नापती है। लेकिन शायर कहता है कि यह "दो दिन की" (यानी क्षणभंगुर) ज़िंदगी का असली ‘मज़ा’ क्या है, यह हमसे पूछो। यह ज़िंदगी के सफ़र को स्वीकार करने जैसा है, जैसा निदा फ़ाज़ली कहते हैं, "सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको"

2️⃣ दूसरा शेर

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह इस ग़ज़ल के सबसे मशहूर और दर्द भरे शेरों में से एक है। "क़िस्तों में ख़ुद-कुशी" (Suicide in installments) एक ऐसी उपमा है जो रूह कंपा देती है।

शायर कहता है कि अपने महबूब को भुलाना कोई आसान काम नहीं था। यह एक झटके में नहीं हुआ। हमें उन्हें "रफ़्ता रफ़्ता" (धीरे-धीरे) और "मुद्दतों में" (एक लंबे अरसे में) भुलाना पड़ा। और यह भूलने की प्रक्रिया कैसी थी? यह रोज़ थोड़ा-थोड़ा मरने जैसा था। यह दर्द की वह इंतेहा है जिसे जौन एलिया जैसे शायर ने भी अपनी बेबाक़ी से छुआ है।

3️⃣ तीसरा शेर

आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह शेर अनुभव और भोलेपन के बीच का फ़र्क़ है।

  • आग़ाज़-ए-आशिक़ी: इश्क़ की शुरुआत। यह रोमांच, उत्साह, और गुलाबी सपनों से भरा होता है।

  • अंजाम-ए-आशिक़ी: इश्क़ का अंत। यह परिपक्वता (maturity), दर्द, तन्हाई, और ज़ख़्मों के साथ जीना सीखना है।

शायर कहता है कि इश्क़ का असली चेहरा उसके अंजाम में है। यह इश्क़ के सफ़र के उन रास्तों जैसा है जहाँ हर क़दम एक नया तजुर्बा है, और इसका असली ‘मज़ा’ (अनुभव) कोई हम जैसा तजुर्बेकार ही बता सकता है।

रात में घाट पर आग के पास बैठे लोग ज़िंदगी का मज़ा लेते हुए, 'दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए' पंक्ति का भावार्थ

4️⃣ चौथा शेर

जलते दियों में जलते घरों जैसी ज़ौ कहाँ सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह एक बहुत गहरा और प्रतीकात्मक शेर है।

  • ज़ौ (Zau): रौशनी, चमक, लौ (flame)।

  • जलते दिए: ये आम रौशनी हैं, जो दुनिया को दिखती है।

  • जलते घर: यह सर्वनाश है, अपना सब कुछ लुटा देना।

शायर कहता है कि एक दीये की लौ की तुलना एक जलते हुए घर की लौ से नहीं की जा सकती। "सरकार, रौशनी का मज़ा हम से पूछिए"—शायर कहता है कि ऐ दुनिया वालो, तुमने सिर्फ़ दियों की रौशनी देखी है। हमने तो इश्क़ में अपना वजूद जलाकर रौशनी की है।

5️⃣ पाँचवाँ शेर

वो जान ही गए कि हमें उन से प्यार है आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: इश्क़ और आँखों का रिश्ता बहुत पुराना है। "मुख़बिरी" का मतलब है जासूसी करना, राज़ खोल देना। शायर कहता है कि हमने अपनी ज़बान से कभी इज़हार नहीं किया, लेकिन हमारी ही आँखों ने हमारा पर्दा फ़ाश कर दिया। "आँखों की मुख़बिरी का मज़ा" — यह वह मज़ा है जब आप पकड़े जाते हैं, और आपका महबूब वह सब समझ भी जाता है।

6️⃣ छठा शेर

हँसने का शौक़ हम को भी था आप की तरह हँसिए मगर हँसी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह शेर दुनिया के तानों और ज़िंदगी के दर्द पर एक गहरा व्यंग्य (sarcasm) है। शायर किसी हँसते-मुस्कुराते, बेफ़िक्र इंसान से कह रहा है कि "हँसने का शौक़ हमको भी था"। लेकिन ज़िंदगी और इश्क़ के तजुर्बों ने हमसे वह बेफ़िक्र हँसी छीन ली।


"हँसिए मगर हँसी का मज़ा हम से पूछिए"—आप हँस लीजिए, आपकी हँसी अभी नादानी की है। लेकिन दुनिया के सामने दर्द छुपाकर हँसने की कला... यह कैफ़ी आज़मी की उस अमर पंक्ति की याद दिलाता है, "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", जहाँ हँसी एक पर्दा है।

7️⃣ सातवाँ शेर (मक़्ता)

हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ 'ख़ुमार' तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए

व्याख्या: यह मक़्ता (आख़िरी शेर) है, जिसमें शायर अपना तख़ल्लुस 'ख़ुमार' (जिसका मतलब नशा भी है) इस्तेमाल करता है।

  • मय-कशी: शराब पीना (Drinking)।

  • तौहीन: अपमान (Insult)।

शायर कहता है कि ऐ 'ख़ुमार', हमने शराब पीने से "तौबा" कर ली। लेकिन शराब छोड़ी तो हम "बे-मौत मर गए"। यानी शराब (या इश्क़ का नशा) ही हमारी ज़िंदगी का सबब थी। हमने तौबा करके, यानी शराब को छोड़कर, शराब पीने की पूरी रस्म (मय-कशी) की तौहीन (insult) कर दी है। और इस अपमान का ‘मज़ा’ (इसकी सज़ा) यह है कि हम बे-मौत मर गए।


✒️ ख़ुमार बाराबंकवी की शैली और भाषा की विशेषताएँ

इस ग़ज़ल में Khumar Barabankvi Ghazal की तमाम ख़ूबियाँ मौजूद हैं:

  1. सरल उर्दू लफ़्ज़ों में गहरी फ़लसफ़ा: ख़ुमार मुश्किल बात को भी आसान ज़बान में कहने के उस्ताद थे। 'क़िस्तों में ख़ुद-कुशी' या 'आँखों की मुख़बिरी' जैसे वाक्यांश आम बोलचाल के क़रीब होकर भी बहुत गहरे हैं।

  2. सुगंधित लहजा और रूमानी रचना शैली: उनकी शायरी में एक नर्मी है, एक 'ख़ुमार' है जो पढ़ने वाले पर छा जाता है।

  3. रदीफ़-क़ाफ़िया का सटीक प्रयोग: इस ग़ज़ल का रदीफ़ "का मज़ा हम से पूछिए" ग़ज़ल को एक आधिकारिक और अनुभवात्मक टोन देता है।

  4. परंपरा का निर्वाह: यह परंपरा आज भी हिमांशी बाबरा जैसी नई आवाज़ों में नए रूप में ढल रही है।

A cute girl smiling on reading hindi ghazal

⏳ आज के दौर में इस ग़ज़ल की प्रासंगिकता

आज जब भावनाएँ तेज़ी से बदलती हैं (fast-paced digital world), जहाँ इश्क़ 'right swipe' पर तय होता है और दर्द 'stories' में बयान होता है, वहाँ ख़ुमार की यह ग़ज़ल हमें ठहरना और 'महसूस' करना सिखाती है।

यह ग़ज़ल याद दिलाती है कि इश्क़ सिर्फ़ एक भाव नहीं, बल्कि ज़िंदगी का एक मुकम्मल अनुभव है। यह ठहरी हुई भावना गुलज़ार साहब की नज़्मों की तरह है, जो आज भी उतनी ही ताज़ा है और हमें सिखाती है कि ज़िंदगी को पलों में जियो, लेकिन उन पलों को सदियों जितना गहरा जियो।


💭 निष्कर्ष

“इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए” सिर्फ़ एक शेर नहीं, बल्कि ज़िंदगी के दर्द, इश्क़ और समय की सीमाओं को तोड़ने वाली एक आत्मीय पुकार है। यह उन लोगों की आवाज़ है जिन्होंने ज़िंदगी को सिर्फ़ जिया नहीं, बल्कि भोगा है; जिन्होंने इश्क़ किया है और उसके अंजाम को क़ुबूल किया है।

ख़ुमार बाराबंकवी की ये ग़ज़ल आज भी, और हमेशा, हर टूटे और हर जुड़े दिल में वही ‘ख़ुमार’ छोड़ जाती रहेगी।


❓ अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)

Q1: ख़ुमार बाराबंकवी की इस ग़ज़ल का मुख्य भाव क्या है? A: इस ग़ज़ल का मुख्य भाव है इश्क़ और ज़िंदगी के गहरे तजुर्बों (अनुभवों) की प्रामाणिकता। शायर यह बताना चाहता है कि ज़िंदगी के असली मज़ा (जैसे दर्द, इंतज़ार, तड़प) को वही समझ सकता है जिसने उसे ख़ुद झेला हो।

Q2: ग़ज़ल में ‘क़िस्तों में ख़ुद-कुशी’ का क्या अर्थ है? A: ‘क़िस्तों में ख़ुद-कुशी’ का अर्थ है किसी को धीरे-धीरे भूलने की दर्दनाक प्रक्रिया। यह एक ऐसी मानसिक पीड़ा है जहाँ इंसान रोज़ थोड़ा-थोड़ा मरता है, जो एक बार में जान देने से ज़्यादा तकलीफ़देह है।

Q3: 'इक पल में इक सदी का मज़ा' से शायर का क्या मतलब है? A: इसका मतलब है कि इश्क़ में अनुभव किए गए एक पल की गहराई और तीव्रता इतनी अधिक होती है कि वह सौ साल (एक सदी) जीने के बराबर का एहसास या सुकून दे जाती है। यह समय के सापेक्ष (relative) हो जाने का एक काव्यात्मक वर्णन है।

उर्दू ग़ज़ल के मशहूर शायर ख़ुमार बाराबंकवी का एक चित्र, 'इक पल में इक सदी का मज़ा' के लेखक

Q4: यह ग़ज़ल ‘दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा’ क्यों कहती है? A: 'दो दिन की ज़िंदगी' एक मुहावरा है जिसका अर्थ है 'छोटी सी ज़िंदगी' या 'नश्वर जीवन'। शायर कह रहा है कि इस छोटी सी ज़िंदगी का असली मज़ा (सार्थकता) लंबे साल जीने में नहीं, बल्कि 'इक पल में इक सदी' जैसे गहरे पल जीने में है।

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