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रश्मिरथी सर्ग 2 (Rashmirathi Sarg 2): सम्पूर्ण कविता, सारांश और परशुराम का श्राप | दिनकर

रश्मिरथी सर्ग 2 (Rashmirathi Sarg 2): सम्पूर्ण कविता, सारांश और परशुराम का श्राप | दिनकर

रश्मिरथी सर्ग 2 (Rashmirathi Sarg 2): सम्पूर्ण कविता, सारांश और परशुराम का श्राप | दिनकर

रश्मिरथी सर्ग 2: एक परिचय

क्या होता है जब एक शिष्य अपने गुरु से छल करता है? और क्या होता है जब वह छल, विद्या पाने के अधिकार के लिए किया गया हो?

Karna, the main character of Rashmirathi Sarg 2, with his glowing Kavacha and bow at sunset, representing his identity as Suryaputra.

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के खंडकाव्य 'रश्मिरथी' का दूसरा सर्ग कर्ण के जीवन की सबसे मार्मिक और निर्णायक घटना का वर्णन करता है। यह वह प्रसंग है जो कर्ण की महान गुरुभक्ति, अद्वितीय सहनशीलता और उसकी जातिगत विवशता को एक साथ उजागर करता है।

Rashmirathi Sarg 2 (रश्मिरथी द्वितीय सर्ग) हमें महेंद्रगिरि पर्वत पर स्थित परशुराम के तपोवन में ले जाता है, जहाँ कर्ण ने अपनी पहचान छिपाकर शस्त्र विद्या प्राप्त की। यह सर्ग कर्ण के उस गहरे आंतरिक संघर्ष और उस दुर्भाग्यपूर्ण क्षण को दिखाता है, जब एक विषकीट (कीड़ा) उसकी परीक्षा लेता है और उसे अपने गुरु के प्रलयंकारी क्रोध और श्राप का सामना करना पड़ता है।

Check This Out - रश्मिरथी सर्ग 1 (Rashmirathi Sarg 1): सम्पूर्ण कविता, सारांश और भावार्थ

रश्मिरथी द्वितीय सर्ग: सम्पूर्ण कविता (Rashmirathi Sarg 2 Full Poem)

शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचाती है,
धूम-धूम-चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद से चिकने पत्थर।

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह, उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

‘वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाय, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।

कहते हैं: “ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।
Guru Dronacharya, who refused to teach Karna, as mentioned in Karna's internal conflict in Rashmirathi Sarg 2.

जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।

खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
औ’ रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी-यशस्वी की।

सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है,
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय,
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
थकी जीभ समझाकर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ छोड़ खड्‌ग की भाषा को।

रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप-समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

रोज कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड्‌ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।’

वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है,
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।”

जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ;
“जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

मैं शंकित था, ब्राह्म वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?”

किन्तु हाय! ‘ब्राह्मणकुमार’ सुन प्रण काँपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?

नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।

मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?

कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।

गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।

कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।
An abstract image of Karna's divine energy and intense pain, representing his endurance during the Vishkeet (insect) test in Rashmirathi Sarg 2.

किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती,
सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती।
सोचा उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,
गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर, पाप नहीं लूँगा।

बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,
आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।
किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,
परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।

कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,
बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।
परशुराम बोले: “शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,
सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।”

तनिक लजाकर कहा कर्ण ने: “नहीं अधिक पीड़ा मुझको,
महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?
मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,
क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।

निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,
छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?
पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,
लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।”

परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,
फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले: “कौन छली है तू?
ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?

सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।

तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?
कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।

तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।”

कर्ण का असली परिचय और आत्मस्वीकृति
“क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!” गिरा कर्ण गुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!

“सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ।
छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।

बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।

बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।
पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।

छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,
अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?

करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?

यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?

परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।”

लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
बोले: “हाय! कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?

अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

तूने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से,
क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?
किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,
सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।

नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,
तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।
पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,
परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।

सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?
किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?
सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?”

पद पर बोला कर्ण: “दिया था जिसको आँखों का पानी,
करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।
बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,
दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।”
Karna on the battlefield with a flaming arrow, symbolizing the Brahmastra and the curse from Parashurama in Rashmirathi Sarg 2.

परशुराम ने कहा: “कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,
तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?
पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,
परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।

मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”

कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह: “हाय! किया यह क्या गुरुवर?
दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?
वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?
अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?”

परशुराम ने कहा: “कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,
जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।
इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,
मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।

रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?
एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।
नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,
नये भाव, नूतन उमंग से, वीर बने रहते नूतन।

तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,
इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।
अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,
भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।

अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,
रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।
हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,
सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?

व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।

आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,
मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय?
अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।

जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो
बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।
भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।”

इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना,
जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा सपना।
छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।

परशुधर के चरण की धूलि लेकर,
उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा से विकल, टूटा हुआ-सा,
किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,
चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में,
कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।

रश्मिरथी सर्ग 2 का सारांश (Rashmirathi Sarg 2 Summary in Hindi)

प्रथम सर्ग की कहानी कर्ण के परिचय और उसके सार्वजनिक उदय के साथ शुरू होती है।

1. परशुराम का तपोवन 

सर्ग की शुरुआत महेंद्रगिरि पर्वत पर स्थित परशुराम के शांत तपोवन के वर्णन से होती है। यह एक विरोधाभासी स्थान है जहाँ एक ओर यज्ञ की सामग्री (अजिन, दर्भ, कमंडलु) है, तो दूसरी ओर भीषण युद्ध के अस्त्र-शस्त्र (धनुष, तूणीर, परशु) भी हैं। दिनकर जी प्रश्न उठाते हैं कि क्या यह कोई युद्ध-शिविर है या तपोभूमि? वे स्वयं उत्तर देते हैं कि तप और शस्त्र, दोनों वीरों का श्रृंगार हैं, और यह कुटीर उसी महामुनि परशुराम की है, जिनके पास "शाप और शर" (श्राप और बाण) दोनों की शक्ति थी।

2. गुरुभक्ति में लीन कर्ण 

इसी शांत वातावरण में, मुनि परशुराम अपने शिष्य कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे हैं। कर्ण पूरी सजगता से अपने गुरु की सेवा कर रहा है, ताकि कोई कीट या पत्ता उनकी नींद में बाधा न डाले। वह अपने गुरु के प्रति अपार स्नेह और कृतज्ञता महसूस करता है, जिन्होंने उसे पुत्र की तरह ममता दी और विद्या सिखाई।

3. परशुराम का सामाजिक दर्शन 

कर्ण परशुराम के उन विचारों को याद करता है, जो वे अक्सर कहते थे। परशुराम समाज की उस "विचित्र रचना" की आलोचना करते थे जहाँ ज्ञान ब्राह्मण को, धन वैश्य को और शस्त्र क्षत्रिय को मिला। उनका मानना था कि क्षत्रिय (राजे) अपने शस्त्र-बल के घमंड में डूबे हैं और केवल अपना राज्य बढ़ाने और प्रजा को लूटने के लिए युद्ध करते हैं। वे ज्ञानी ब्राह्मणों का अपमान करते हैं। परशुराम का मानना था कि जब तक ज्ञान, तप और त्याग को शस्त्र-बल से अधिक सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक धरती दुखों से मुक्त नहीं हो सकती।

4. कर्ण का आंतरिक द्वंद्व 

कर्ण अपने गुरु के प्रेम को याद करता है, जो उसे "ब्राह्मणकुमार" कहकर आशीर्वाद देते हैं। लेकिन यही शब्द कर्ण के हृदय में ग्लानि और धिक्कार भर देते हैं, क्योंकि उसने अपने गुरु से अपनी 'सूतपुत्र' जाति छिपाई थी। वह सोचता है कि यदि वह द्रोण के पास जाता, तो वे भी एकलव्य की तरह उसका अँगूठा कटवा लेते। वह उस देश को कोसता है जहाँ "गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?"

5. विषकीट की परीक्षा और कर्ण की सहनशीलता 

जब कर्ण इन्हीं विचारों में खोया था, एक विषैला कीड़ा (विषकीट/वज्रदंष्ट्र) कहीं से आकर कर्ण की जंघा में घुस जाता है और उसे कुतर-कुतर कर खाने लगता है। गुरु की नींद टूटने के डर से, कर्ण उस असहनीय पीड़ा को बिना आह निकाले, शिला की तरह अचल बैठा सहता रहता है।

6. परशुराम का क्रोध और श्राप 

जब रक्त की गर्म धारा से परशुराम की नींद खुलती है, तो वे कर्ण की जंघा से बहता लहू देखकर विस्मित हो जाते हैं। कर्ण की इस अद्भुत सहनशीलता को देखकर वे तुरंत पहचान जाते हैं कि वह ब्राह्मण नहीं हो सकता। वे क्रोध में भरकर कहते हैं:

"सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है... इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।"

वे कर्ण को "छली" और "पापी" कहकर उसकी असलियत बताने को कहते हैं।

7. कर्ण का सत्य और परशुराम का श्राप 

कर्ण कांपते हुए गुरु के चरणों में गिर पड़ता है और अपना सत्य बता देता है कि वह 'सूत-पुत्र शूद्र कर्ण' है। वह बताता है कि द्रोण द्वारा ठुकराए जाने के भय से उसने अपनी जाति छिपाई। वह अपने छल के लिए दंड मांगता है, लेकिन अर्जुन को हराने की अपनी अतृप्त इच्छा भी व्यक्त करता है।

परशुराम का क्रोध करुणा में बदल जाता है, लेकिन वे कहते हैं कि छल का दंड तो मिलेगा। वे कर्ण को श्राप देते हैं:

"सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।"

8. विदाई 

कर्ण इस "निदारुण" श्राप से विकल हो उठता है, लेकिन परशुराम उसे सांत्वना देते हैं कि उसके पास कवच-कुंडल और अन्य ज्ञान हैं, और वह विश्व में महान कहलाएगा। अंत में, परशुराम कर्ण को अपने तपोवन से विदा कर देते हैं, और कर्ण "निराशा से विकल, टूटा हुआ-सा" अपने गुरु को अश्रुपूर्ण विदाई देकर चला जाता है।

रश्मिरथी सर्ग 2 का भावार्थ और विश्लेषण (Rashmirathi Sarg 2 Poem Meaning)

'इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है'

यह पंक्ति Rashmirathi Sarg 2 का केंद्रीय भाव है। यह एक विडंबना है कि कर्ण का जो गुण उसकी सबसे बड़ी शक्ति (सहनशीलता) था, वही उसकी पहचान को उजागर कर देता है। परशुराम के दर्शन में, ब्राह्मण 'तेज-पुंज' होता है; वह अन्याय या पीड़ा को सहता नहीं, बल्कि तिल-तिल कर जल उठता है और तुरंत प्रतिकार करता है। क्षत्रिय का गुण 'सहनशीलता' और 'कठोरता' है। कर्ण की गुरुभक्ति ने उसे पीड़ा सहने पर विवश किया, और इसी गुण ने उसे 'क्षत्रिय' सिद्ध कर दिया।

कर्ण को श्राप: छल का दंड या नियति?

इस सर्ग का मुख्य भावार्थ Karna Ko Shaap (कर्ण को श्राप) की घटना में निहित है।

  • विश्लेषण: यह केवल एक गुरु का क्रोध नहीं, बल्कि कर्ण की नियति की त्रासदी है। कर्ण ने छल इसलिए किया क्योंकि समाज (द्रोण) ने उसे उसकी जाति के कारण विद्या का अधिकारी नहीं समझा। विद्या पाने के लिए उसे फिर छल का सहारा लेना पड़ा (परशुराम से)। और अंत में, उसी छल के कारण वह अपनी विद्या के "अंतिम चरम तेज" (ब्रह्मास्त्र) से वंचित हो गया। यह एक चक्रव्यूह था, जिसे कर्ण की जाति ने रचा और उसकी नियति ने पूरा किया।

A divine depiction of Lord Krishna, a central figure in the Mahabharat, featured in the Sahityashala poetry collection.

परशुराम का द्वंद्व: गुरु और व्रती

परशुराम का चरित्र यहाँ अत्यंत जटिल है। वे कर्ण से पुत्रवत स्नेह करते हैं ("सुत-सा रखा जिसे"), लेकिन वे अपने 'व्रत' (कि वे केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र विद्या देंगे) से भी बंधे हैं। उनका क्रोध उनके अपने छल जाने के बोध से उपजा है। वे कर्ण को प्राण-दान देते हैं, उसे 'महान' होने का वरदान भी देते हैं, लेकिन अपने व्रत की रक्षा के लिए उसे श्राप भी देते हैं। यह उनके भीतर 'गुरु' और 'व्रती' का द्वंद्व है।

विद्यार्थियों और UPSC उम्मीदवारों के लिए विशेष

  • नैतिकता (Ethics - GS Paper 4): यह सर्ग 'साध्य बनाम साधन' (Ends vs. Means) की बहस को उठाता है। क्या एक महान लक्ष्य (विद्या प्राप्ति) के लिए छल (असत्य) का साधन अपनाना उचित है? कर्ण का 'छल' क्या नैतिक रूप से गलत था, या वह उस समय की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ एक विद्रोह था?

  • निबंध (Essay Paper): "धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?" या "कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात" जैसी पंक्तियाँ 'सामाजिक न्याय', 'जातिगत भेदभाव' और 'योग्यता बनाम जन्म' (Merit vs. Birth) जैसे विषयों पर निबंध के लिए उत्कृष्ट हैं।


रश्मिरथी सर्ग 2 से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

प्रश्न 1: परशुराम ने कर्ण को श्राप क्यों दिया? 

उत्तर: परशुराम ने कर्ण को श्राप इसलिए दिया क्योंकि कर्ण ने अपनी पहचान छिपाकर उनसे विद्या प्राप्त की थी। कर्ण ने स्वयं को 'ब्राह्मणकुमार' बताया था, जबकि वह 'सूत-पुत्र' था। परशुराम ने इसे छल माना और दंड के रूप में श्राप दिया।

प्रश्न 2: कर्ण को परशुराम ने क्या श्राप दिया था? 

उत्तर: परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि उन्होंने जो ब्रह्मास्त्र की विद्या सिखाई है, वह उसे ऐन वक्त पर (जब उसे उसकी सबसे अधिक आवश्यकता होगी) याद नहीं आएगी। ("सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।")

प्रश्न 3: कर्ण की जंघा में काटने वाले कीड़े का क्या नाम था? 

उत्तर: दिनकर जी ने उसे "विषकीट" और "वज्रदंष्ट्र" (वज्र जैसे दांतों वाला) कहा है। लोककथाओं और अन्य संस्करणों में, इस कीड़े को 'अलर्क' नामक एक भौंरा या बिच्छू भी कहा गया है, जो वास्तव में एक असुर था।

निष्कर्ष

रश्मिरथी द्वितीय सर्ग (Rashmirathi Sarg 2) कर्ण के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी को स्थापित करता है। छल से प्राप्त की गई विद्या अंत में छल के कारण ही निष्फल हो जाती है। यह कर्ण की नियति थी कि उसे हर उस स्थान पर अपनी जाति के कारण अपमानित और वंचित होना पड़ा, जिसका वह वास्तव में अधिकारी था।

यह सर्ग हमें दिखाता है कि कर्ण की सहनशीलता एक ब्राह्मण की नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय की थी, और यही गुण उसकी पहचान को उजागर कर देता है। परशुराम का यह श्राप ही अंततः महाभारत के युद्ध में अर्जुन के विरुद्ध उसकी मृत्यु का एक प्रमुख कारण बनता है।

https://sahitya-akademi.gov.in (साहित्य अकादमी, भारत की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की आधिकारिक वेबसाइट)

https://ndl.iitkgp.ac.in (भारतीय राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी, शैक्षिक संसाधनों के लिए)

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