👉 संक्षेप में: यहाँ ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ कविता का पूरा पाठ, सरल हिंदी भावार्थ, कक्षा 9-12 के लिए सारांश और PDF डाउनलोड उपलब्ध है।
📌 कविता: एक नज़र में (Quick Facts)
- ✔ लेखक: रामधारी सिंह दिनकर (राष्ट्रकवि)
- ✔ कविता का संदेश: जनतंत्र में जनता ही असली शक्ति है।
- ✔ प्रकाशन/संदर्भ: 1975 आपातकाल और जेपी आंदोलन का प्रमुख गीत।
- ✔ शैली (Ras): वीर रस (Ojaswi)
- ✔ पहली पंक्ति: सदियों की ठंढी, बुझी राख...
रामधारी सिंह दिनकर की लेखनी में वह आग थी जिसने सत्ताओं को हिला दिया। उनकी प्रसिद्ध रचना "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" केवल एक कविता नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र का वह मंत्र है जिसे जयप्रकाश नारायण (JP) ने 1975 में आपातकाल (Emergency) से ठीक पहले रामलीला मैदान में दोहराया था।
विषय सूची (Table of Contents):
सिंहासन खाली करो कविता – संक्षेप (Short Summary)
यह कविता सत्ताधारियों के लिए एक चेतावनी है। इसमें कवि दिनकर ने बताया है कि असली राजा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि देश की 'जनता' है। सदियों से शोषित और शांत रहने वाली जनता जब जागती है, तो बड़े-बड़े सिंहासन डोल जाते हैं। यह कविता वीर रस से ओत-प्रोत है और जनतंत्र (Democracy) की ताकत को दर्शाती है।
सिंहासन खाली करो कविता किसने लिखी?
यह कालजयी रचना हिंदी के प्रसिद्ध 'राष्ट्रकवि' रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी गई है। दिनकर जी अपनी ओजस्वी वाणी और राष्ट्रवादी कविताओं जैसे रश्मिरथी और 'कुरुक्षेत्र' के लिए जाने जाते हैं।
सिंहासन खाली करो (Full Poem Lyrics)
सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
"जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सिंहासन खाली करो कविता PDF Download
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📄 Download Poem PDFकविता का भावार्थ (Meaning & Analysis)
इस कविता में दिनकर जी ने स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र में 'जनता' ही सर्वोपरि है।
- मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है: इसका अर्थ है कि अब आम आदमी (मिट्टी) के शासन करने का समय आ गया है।
- देवता मिलेंगे खेतों में: कवि कहते हैं कि असली भगवान मंदिरों में नहीं, बल्कि कड़ी धूप में सड़क बनाने वाले मजदूरों और खेत जोतने वाले किसानों में हैं। यह राम के मानवीय संघर्ष जैसा ही दर्शन है।
महत्वपूर्ण प्रश्न और मुहावरे (Important Questions)
Q. 'सिंहासन खाली करना' मुहावरे का अर्थ क्या है?
Ans: इसका अर्थ है 'सत्ता छोड़ना' या 'पद त्याग देना'। यहाँ कवि शासकों से कह रहे हैं कि वे हटें, क्योंकि अब जनता राज करेगी।
Q. कवि ने जनता के लिए सिंहासन खाली करने के लिए क्यों कहा है?
Ans: क्योंकि समय बदल चुका है। अब राजाओं का नहीं, प्रजा (लोकतंत्र) का समय आ गया है।
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