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सांसों का हिसाब - Saanson Ka Hisaab Kavita | शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही। Explanation

’दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।

दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही। Explanation

इन पंक्तियों में कवि की वेदना व जीवन संघर्ष साफ झलकता है।

देखा विवाह आमूल नवल,

तुझ पर शुभ पङा कलश का जल।

देखती मुझे तू हँसी मंद,

होठों में बिजली फँसी स्पंद

उर में भर झूली छबि सुंदर

प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर

तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,

विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग

नत नयनों से आलोक उतर

काँपा अधरों पर थर-थर-थर।

देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति

मेरे वसंत की प्रथम गीति –


शृंगार, रहा जो निराकार,

रह कविता में उच्छ्वसित-धार

गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-

भरता प्राणों में राग-रंग,

रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,

आकाश बदल कर बना माही।

हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,

कोई थे नहीं, न आमंत्रण

था भेजा गया, विवाह-राग

भर रहा न घर निशि-दिवस जाग,

प्रिय मौन एक संगीत भरा

नव जीवन के स्वर पर उतरा।



माँ की कुल निराश मैंने दी,

पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,

सोचा मन में, ’’वह शकुंतला,

पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।’’

कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,

बैठी नानी की स्नेह-गोद।

मामा-मामी का रहा प्यार,

भर जल्द धरा को ज्यों अपार,

वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,

तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त,

वह लता वहीं की, जहाँ कली

तू खिली, स्नेह से हिली, पली,

अंत भी उसी गोद में शरण

ली, मूँदे दृग वर महामरण!


मुझ भाग्यहीन की तू संबल

युग वर्ष बाद जब हुई विकल,

दुख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!

हो इसी कर्म पर वज्रपाल

यदि धर्म, रहे नत सदा माथ

इस पथ पर, मेरे कार्य सकल

हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!

कन्ये, गत कर्मों का अर्पण

कर, करता मैं तेरा तर्पण!

दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही। Explanation

भावार्थ: –

कवि ’निराला’ की बेटी का नाम सरोज है जिसकी असामयिक मृत्यु हो गई थी। कवि दुखी होकर उसके विवाह के क्षणों को याद करते हुए कहते हैं कि ’’तेरा विवाह बिल्कुल नए रूप में मैंने देखा था। तुझ पर कलश का शुभ्र जल गिराया जा रहा था, तू उस समय मुझे देखती हुई मंद-मंद हँस रही थी। तेरे होठों पर बिजली जैसा कंपन था। तेरे हृदय में प्रियतम की सुंदर छवि झूल रही थी जिसे अभिव्यक्त करना तेरे लिए संभव नहीं था लेकिन वह तेरे शृंगार के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहा था। तेरे झुके हुए नेत्रों से प्रकाश फैल रहा था और तेरे होंठ काँप रहे थे। शायद तू कुछ कहना चाहती थी या माँ का अभाव तुझे दर्द दे रहा होगा। तुझे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे जीवन के सुखद क्षणों का प्रथम गीत तो तू ही थी।’’

’निराला’ को पुत्री के विवाह के समय उसका शृंगार उनकी पत्नी के निराकार स्वरूप का स्मरण करा रहा था। पत्नी का वह शृंगार ही कविता में अभिव्यक्त हो रहा है। कविता का यह रस मेरे प्राणों में प्रिया के साथ बिताए गए राग-रंगों को भर रहा है। वह अत्यंत सुन्दर रूप मानों आकाश अर्थात् स्वर्गलोक से उतरकर पुत्री के रूप में पृथ्वी पर उतर आया हो। पुत्री का विवाह सम्पन्न हो गया था। कोई आत्मीयजन भी नहीं था क्योंकि किसी को निमंत्रण ही नहीं दिया गया था।


घर में दिन-रात गाए जाने वाले विवाह के गीत भी नहीं गाए गए थे। पुत्री के विवाह की चहल-पहल में कोई दिन-रात नहीं जागा। अत्यंत साधारण तरीके से उसका विवाह सम्पन्न हो गया। एक प्यारा-सा शांत वातावरण था और इस मौन में ही एक संगीत लहरी थी जो एक नवयुगल के नवजीवन में प्रवेश के लिए आवश्यक थी।

कवि अपनी स्वर्गीय पुत्री सरोज को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि तेरी माँ के अभाव में माता द्वारा दी जाने वाली शिक्षा भी मैंने ही दी थी। विवाहोपरांत तेरी पुष्प शैया भी स्वयं मैंने ही सजाई थी। कवि के मन में ख्याल आया कि जिस प्रकार कण्व ऋषि की पुत्री शंकुतला माँ विहीन थी इसी प्रकार मेरी पुत्री सरोज है।


किन्तु उस घटना और इस घटना की स्थिति में अंतर है। शंकुतला की माता उसे स्वयं छोङकर गई थी किन्तु सरोज की माँ को असमय ही मौत ने अपने आगोश में ले लिया था। विवाह के कुछ दिन बाद ही तू खुशी के साथ नानी की प्रेममयी गोद पाने के लिए ननिहाल चली गई थी। वहाँ पर मामा-मामी ने तुझ पर प्यार रूपी जल की अपार वर्षा की थी। तेरे ननिहाल वाले हमेशा तेरे सुख दुःख में निहित रहे। वे हमेशा तेरे हित साधन में लगे रहे। तू वहीं कली के रूप में खिली, स्नेह से वहाँ पली, वहीं की लता बनी और अंतिम समय में तूने मृत्यु का वरण भी वहीं किया था।

कवि निराला भावुक होकर कहते हैं कि हे पुत्री! तू मेरे जैसे भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा थी। दुख मेरे जीवन की कथा रही है जिसे मैंने अब तक किसी से नहीं कहा, उसे अब आज क्या कहूँ। मुझ पर कितने ही वज्रपात हो अर्थात् कितनी ही भयानक विपत्तियाँ आए, चाहे मेरे समस्त कर्म उसी प्रकार भ्रष्ट हो जाए जैसे सर्दी की अधिकता के कारण कमल पुष्प नष्ट हो जाते हैं लेकिन यदि धर्म मेरे साथ रहा तो मैं विपदाओं को मस्तकक झुकाकर सहज भाव से स्वीकार कर लूँगा। मैं अपने रास्ते से नहीं हटूँगा। कवि अंत में कहता है कि बेटी मैं अपने बीते हुए समस्त शुभ कर्मों को तूझे अर्पित करते हुए तेरा तर्पण करता हूँ अर्थात् मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे द्वारा किए शुभकर्मों का फल तुझे मिल जाए।

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