भली सी एक शक्ल थी - Bhali Si Ek Shakl Thi | Ahmad Faraz Best Ghazal (Lyrics & Meaning) | अहमद फ़राज़ की मशहूर ग़ज़ल
भली सी एक शक्ल थी - Bhali Si Ek Shakl Thi
अहमद फ़राज़ ग़ज़लें | Ahmad Faraz Ki Ghazal
उर्दू शायरी के आसमान में अहमद फ़राज़ वो सितारा हैं जिनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। उनकी यह ग़ज़ल, "भली सी एक शक्ल थी", खोए हुए प्रेम और सुनहरी यादों का एक ऐसा दस्तावेज़ है जिसे पढ़ते हुए हर शख्स अपनी ही कहानी में खो जाता है।
जहाँ फ़राज़ की मकबूल तरीन ग़ज़ल सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं इश्क़ की भव्यता और दीवानगी को बयां करती है, वहीं यह रचना एक खामोश और गहरे रिश्ते की नज़ाकत को पेश करती है। इसमें महबूब की सादगी का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में है जैसे सादगी तो हमारी ज़रा देखिए में कतील शिफ़ाई ने किया है। यह ग़ज़ल उस 'भले मानुष' की याद दिलाती है जिसके साथ जीवन का कठिन सफ़र भी आसान लगता था।
भले दिनों की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला-भला सफ़र लगे
कोई भी रुत हो उस की छब
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी
न मुद्दतों जुदा रहे
न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
न ये कि इज़्न-ए-आम हो
न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे
न इख़्तिलात में वो रम
कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़च करें नवाज़िशें
न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन
कि दोस्ती ख़राब हो
कभी तो बात भी ख़फ़ी
कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ
कभी उदासियों का बन
सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी
सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिड़ गई
मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज़-हवस कहे
शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तक़िल रहें
मोहब्बतों की वुसअतें
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं
मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं
न उस को मुझ पे मान था
न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी
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इस ग़ज़ल का अंत एक गहरी ख़ामोशी और परिपक्वता (maturity) पर होता है। यह रिश्ता टूटता है, लेकिन इसमें कड़वाहट नहीं है। शायर स्वीकार करता है कि जब कोई वादा ही नहीं था, तो टूटने का ग़म कैसा? यह वही एहसास है जो हमें अभी ये दौलत नई नई है जैसी रचनाओं में मिलता है—जहाँ भावनाओं का ज्वार तो है, पर उसे संभालने का सलीका भी है।
अहमद फ़राज़ यहाँ 'इश्क़' और 'होश' के बीच का एक संतुलन बनाते हैं। अगर आप दिल की तन्हाई और उससे जुड़ी फरियाद को और गहराई से समझना चाहते हैं, तो तन्हाई में फ़रियाद तो कर सकता हूँ या फिर हालत-ए-हाल को ज़रुर पढ़ें।
साथ ही, यदि आप नई पीढ़ी की शायरी और ताज़ा एहसासों से रूबरू होना चाहते हैं, तो साहित्यशाला पर हिमांशु बबरा की रचनाएँ और उनका सम्पूर्ण ग़ज़ल संग्रह पढ़ना न भूलें। उर्दू अदब का यह कारवाँ ऐसे ही चलता रहता है—कभी फ़राज़ के साथ, तो कभी नए शायरों के संग।

